प्रथम सूचना रिपोर्ट क्या है? विवेचना कीजिए. संज्ञेय के मामलों में अन्वेषण करने के लिए पुलिस अधिकारी की शक्तियों का वर्णन कीजिए?What is the first information report? Discuss its important. State the power of a Police Officer to investigate cognizable offence
प्रथम सूचना रिपोर्ट से आशय ऐसी सूचना से है जो किसी व्यक्ति द्वारा किसी पुलिस अधिकारी को की जाती है एवं जो किसी अपराध के कारित किए जाने से संबंधित होती है. प्रथम सूचना रिपोर्ट का मुख्य उद्देश अपराध की पुलिस अधिकारी से शिकायत करना जिससे वह आपराधिक विधि की गति दे सके. स्टेट आफ असम बनाम यू एन राजखोवा1974 क्रि. लॉज354 एवं हसीब बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार ए आई आर 1972 एस सी 283). ऐसी सूचना लिखित अथवा मुंह जवानी अर्थात मौखिक किसी भी रूप में दी जा सकती है. जब ऐसी सूचना मौखिक दी जाती है तो उसे पुलिस अधिकारी के द्वारा लेख बंद किया जाएगा तथा उसे सूचना देने वाले व्यक्ति को पढ़कर सुनाया जाएगा एवं ऐसी हर एक सूचना पर सूचना देने वाले के हस्ताक्षर लिए जाएंगे. सुरजीत सरकार बनाम स्टेट ऑफ़ बंगाल एआई r2013a सी 807) के केस में फास्ट टेलिफोनिक सूचना को प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं माना गया है.
लेकिन जहां कोई चोटिल व्यक्ति को कई पर्याप्त गहरी चोटें लगी हो तथा वह अचेतन अवस्था में हो वहां पुलिस कांस्टेबल द्वारा प्रत्यक्षदर्शी साक्षी से शिकायत किया जाना उचित है.( मुरूगन बनाम स्टेट ए आई आर 2009 एस सी 72) अनुसंधान जोकि पुलिस द्वारा किया जाता है का मुख्य उद्देश्य अपराध के तथ्यों का पता लगाना होता है. जब भी किसी व्यक्ति द्वारा पुलिस अधिकारी के समक्ष किसी अपराध के कार्य किए जाने की प्रथम सूचना रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है और यदि ऐसा अपराध संगे अपराध होता है तो वह उसका तत्काल अन्वेषण प्रारंभ कर सकेगा इसलिए प्रत्येक अपराध की छानबीन हेतु पुलिस अधिकारी को यह सूचना मिलना आवश्यक होता है कि वह अपराध कब तथा कहां हुआ है अधिनियम की धारा 156सज्ञेय अपराधों में सूचना से संबंधित उपबंध करती है।
संज्ञेय मामलों में सूचना( information in Cognizable cases)
भारतीय दंड प्रक्रिया की धारा 154 के अनुसार -
(a)संज्ञेय अपराध के लिए जाने से संबंधित प्रत्येक सूचना यदि पुलिस थाने के बाहर साधक अधिकारी को मैट्रिक दी गई है तो उसके द्वारा या उसके निर्देशाधीन लेखबध्द कर ली जायेगी और सूचना देने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी और प्रत्येक ऐसी सूचना पर चाहे वह लिखित रूप से दी गई हो या प्रवक्ता रूप में लेख बंद की गई हो उस व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे जो उसे दे और उसका सार ऐसी पुस्तक में जो उस अधिकारी द्वारा ऐसे रूप में रखी जाएगी जिसे राज्य सरकार इस निमित्त विहित करें प्रविष्ट किया जाएगा।
(b) उपधारा (1) के अधीन अभी लिखित सूचना की प्रतिलिपि सूचना देने वाले को तत्काल निशुल्क दी जाएगी.
(c) कोई व्यक्ति जो किसी पुलिस थाने के बाहर साधक अधिकारी के उप धारा(1) मैं निर्दिष्ट सूचना को अभी लिखित करने से इनकार करने से व्यथित है ऐसी सूचना का सार लिखित रूप में और डाक द्वारा संबंध पुलिस अधिकारी को भेज सकता है जो यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि ऐसी सूचना से किसी संज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट होता है तो या तो स्वयं मामले का अन्वेषण करेगा या अपने अधीनस्थ किसी पुलिस अधिकारी द्वारा इस संहिता द्वारा उपबंध प्रीति में अन्वेषण किए जाने का निर्देश देगा और उस अधिकारी को इस अपराध के संबंध में पुलिस थाने के बाहर साधक अधिकारी की सभी शक्तियां होंगी।
प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के बाद सूचना करता का अन्वेषण के लिए अनुसरण करने तथा ऐसे अन्वेषण का परिणाम जानने का अधिकार समाप्त नहीं हो जाता है उसे इस धारा के अंतर्गत दी गई अपनी सूचना पर पुलिस द्वारा निरीक्षण अन्वेषण करने का अधिकार है. सत्यपाल व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य 2000 (40)ACC 75(H.C..) यह बात ध्यान देने योग्य है कि पुलिस अधिकारी द्वारा ऐसे किसी कृत्य का एलिवेशन नहीं किया जा सकता जिस कृत्य हेतु पुलिस पर दोषारोपण है.
सोहन लाल बनाम पंजाब राज्य 2003 के बाद मनोनीत किया गया है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट f.i.r किसी अपराध की सूचना या सूचना से संबंधित एक रिपोर्ट है यह एक मौखिक साक्ष्य नहीं है क्योंकि पुलिस को भी सूचना के बाद भी अपराध का अन्वेषण करना पड़ता है.
धारा 154 के अधीन अभी लिखित की गई रिपोर्ट को ही प्रथम सूचना रिपोर्ट कहां जाता है यहां यह आवश्यक होता है कि धारा 154 के अधीन कोई सूचना तभी प्रथम सूचना रिपोर्ट की कोटी में आती है जब वह किसी अपराध के धारित होने से संबंधित हो.
गणेश भवन पटेल बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के बाद में न्यायालय ने यह मत दिया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट में अनावश्यक विलंब से अभियोजन पक्ष का मामला संदेहास्पद हो गया जाता है. परंतु पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह एवं अन्य एआईआर 1996 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने आधी निर्धारित किया कि बलात्कार जैसे लैंगिक अपराध के मामलों में भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट फाइल करने में देरी की जाना आम बात है। यदि परिवार जनों के पास इसके लिए पर्याप्त कारण हो जो इस विशेष महत्व नहीं दिया जाना चाहिए.
सुशील कुमार बनाम स्टेट ऑफ़ मध्य प्रदेश के केस में कहा गया कि किसी संज्ञेय अपराध के कार्य होने की सूचना टेलीफोन द्वारा भी की जा सकती है ऐसी सूचना मिलने पर उसे लेख बंद कर अन्वेषण प्रारंभ किया जाना विधि सम्मत है।
प्रथम सूचना रिपोर्ट का महत्व (importance of FIR)
यह जरूरी नहीं है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट साक्ष्य का एक विश्वकोश हो और यह भी आवश्यक नहीं है कि उसमें अभियोजन पक्ष का मूल प्रकरण भी उल्लेखित किया गया हो प्रथम सूचना रिपोर्ट साबुत साक्ष्य नहीं होती है इसमें अंकित कथनों का प्रयोग मात्र खंडन अथवा साक्षी को अविश्वसनीय साबित करने के लिए किया जा सकता है.
सोहनलाल बनाम स्टेट ऑफ पंजाब ए आई आर 2003 के मामले में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा यही कहा गया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट कोई सबूत साक्ष्य नहीं है यह तो अपराध का रीत होने की एक सूचना मात्र है.
संज्ञा मामलों का निरीक्षण करने की पुलिस अधिकारी की शक्ति (police officers power to investigate Cognizable cases)
धारा 156 पुलिस अधिकारी की संख्या मामलों में अन्वेषण करने की शक्ति प्रदान करता है संज्ञेय मामलों में सामान्य अन्वेषण का शुभारंभ धारा 154 के अधीन पुलिस थाने को बाहर साधक अधिकारी द्वारा प्राप्त की गई सूचना के आधार पर किया जाता है तथा प्रिय प्रथम सूचना रिपोर्ट के अभाव में भी पुलिस थाने का भार साधक अधिकारी धारा 157 (1) के अधीन अन्वेषण के लिए प्रस्थान कर सकता है यदि उसे किसी संज्ञेय अपराध के धारित होने की आशंका रहती है
धारा 156 के अनुसार -
( 1) धारा 190 के अधीन सशक्त किया गया कोई मजिस्ट्रेट पूर्वक प्रकार के अन्वेषण का आदेश कर सकता है.
( 2) ऐसे किसी मामले में पुलिस अधिकारी की किसी कार्यवाही को किसी भी प्रकार में इस आधार पर प्रश्न करना किया जाएगा कि वह मामला ऐसा था जिसमें ऐसा अधिकारी इस धारा के अधीन अन्वेषण करने के लिए सशक्त ना था.
( 3) कोई पुलिस थाने का भार साधक अधिकारी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना किसी ऐसे संघीय मामले का निवेशन कर सकता है जिसकी जांच या विचारण करने की शक्ति उस थाने की सीमाओं के अंदर के स्थानीय क्षेत्र पर आधारित रखने वाले न्यायालय को अध्याय 13 के उप बंधुओं के अधीन है.
कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी अपराध का संज्ञान लेने से पूर्व भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के अंतर्गत अन्वेषण का आदेश कर सकता है यदि वह ऐसा करता है तब उसे शपथ पर परिवादी की परीक्षा नहीं करनी होती क्योंकि वह उसमें किसी अपराध का संज्ञान नहीं ले रहा था सुरेंद्र चंद्र जैन बनाम मध्यप्रदेश राज्य व एक अन्य ए आई आर 2001 एस सी 571.
यहां यह उल्लेखनीय है कि जहां किसी विशेष न्यायाधीश ने ऐसे किसी मामले का संज्ञान पुलिस अधिकारी द्वारा अन्वेषण के पश्चात उसको तुरंत किए गए आरोप पत्र के आधार पर किया हो और उस न्यायाधीश को यह प्रतीत हो कि पुलिस अधिकारी ने ऐसा अन्वेषण भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5 (क) के समा देसात्मक प्रावधानों का उल्लंघन किया है तो वह ऐसे मामलों का पूरा अनुसंधान करने का आदेश दे सकेगा.
स्टेट आफ उत्तर प्रदेश बनाम जगदेव ए आई आर 2003 के बाद में यह कहा गया कि मातृ दोष अन्वेषण के आधार पर अभियुक्त को दोषमुक्त नहीं किया जा सकता अर्थात दोषपूर्ण अन्वेषण मात्र अभियुक्त को दोषमुक्त का आधार नहीं हो सकता।
अन्वेषण के लिए प्रक्रिया( proceedure for investigation)
धारा 157 के अनुसार -
( 1) यदि पुलिस थाने के बाहर साधक अधिकारी को सूचना प्राप्त होने पर या अन्यथा यह संदेह करने का कारण है कि ऐसा अपराध किया गया है जिसका अन्वेषण करने के लिए धारा 156 के अधीन व सशक्त है तो वह उस अपराध की रिपोर्ट उस मजिस्ट्रेट को तत्काल भेजेगा जो ऐसे अपराध का पुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान करने के लिए सशक्त है और मामलों के तथ्यों और परिस्थितियों का अन्वेषण करने के लिए और यदि आवश्यक हो तो स्वयं जाएगा या अपने अधीनस्थ अधिकारियों में से एक को भेजेगा जो ऐसी पंक्ति से निम्न स्तर पंक्ति करना होगा जिसे राज्य सरकार साधारण या विशेष आदेश द्वारा नियमित विहित करें.
परंतु जब ऐसे अपराध के लिए किए जाने की कोई सूचना किसी व्यक्ति के विरुद्ध उसका नाम देकर की गई है और मामला गंभीर प्रकार का नहीं है तब यह आवश्यक ना होगा कि पुलिस थाने का भार साधक अधिकारी उस स्थान पर अन्वेषण करने के लिए स्वयं जाए या अधीनस्थ अधिकारी को भेजें यदि पुलिस थाने के बाहर साधक अधिकारी को यह प्रतीत होता है कि अन्वेषण करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है तो वह उस मामले का निरीक्षण ना करेगा.
( 2) उप धारा (1) के परंतुक खंड(क) और (ख) मे वाले दशकों में से प्रत्येक दशा में पुलिस थाने का भार साधक अधिकारी अपनी रिपोर्ट में उस उप धारा की अपेक्षाओं का पूर्णतः अनुपालन न करने के अपने कारणों का कथन करेगा और उक्त परंतुक के खन्ड(ख)मे वर्णित दशा मे ऐसा अधिकारी सूचना देने वाले को यदि कोई हो ऐसी रीति से जो राज्य सरकार द्वारा विहित की जाए तत्काल इस बात की सूचना दे देगा कि वह उस मामले में अन्वेषण ना तो करेगा और ना कर आएगा.
उप धारा (2) उद्देश्य तथा प्रयोजन यह है कि यदि पुलिस दुर्भावना पोरिया मनमाने ढंग से अपराध का अन्वेषण करने से इंकार कर देता है तब सूचना करता संहिता या भारत के संविधान के ऊपर बंधुओं का आश्रय लेकर ऐसी इंकारी या निष्क्रियता को चुनौती दे सकता और तब वह विधि के अनुसार पुलिस को अपने कर्तव्य का निर्वहन करने का निर्देश देने वाला आदेश प्राप्त कर सकेगा. (सत्यपाल व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश व अन्य 2000 (40)ए सी सी 75(एच सी एफ बी) यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट में अंकित तथ्यों से किसी संज्ञेय अपराध का कार्य होना प्रकट होता है तो ऐसे मामलों में उच्च न्यायालय समानता हस्तक्षेप नहीं करता है लेकिन यदि तत्वों से संज्ञेय अपराध का कार्य होना प्रकट नहीं होता है तो उच्च न्यायालय ऐसे मामलों में अन्वेषण नहीं किए जाने का निर्देश दे सकता है.
आपराधिक मामलों में अन्वेषण वह आधारशिला होती है जिनके आधार पर अभियोग पत्र तैयार किया जाता है तथा उसी आरोप पत्र के आधार पर न्यायालय में विचारण का सूत्र पात्र किया जाता है.
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