अधिवक्ता शब्द से अभिप्राय (meaning of advocate): अधिवक्ता से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है जो किसी अन्य व्यक्ति की ओर से वक्तव्य देता है अथवा बोलता है अथवा पैरवी करता है अन्य व्यक्ति की ओर से पैरवी करने हेतु अधिकृत व्यक्ति को अधिवक्ता कहा जाता है न्यायालय में पक्षकारों की ओर से पैरवी अधिवक्ताओं द्वारा की जाती है.
अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 2 (1)a अधिवक्ता की परिभाषा इस प्रकार दी है अधिवक्ता से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है जिसका नाम इस अधिनियम के उप बंधुओं के अधीन अधिवक्ता नामावली में प्रविष्ट है.
धारा 2(1)(झ) के अंतर्गत विधि व्यवसाय की परिभाषा दी गई है इसके अनुसार विधि व्यवसाई से अभिप्राय उच्च न्यायालय के किसी अधिवक्ता एवं वकील तथा प्लीडर मुख्तार अथवा राजस्व अभिकर्ता से है।
अधिवक्ता अपने परिवार की ओर से उसके बच्चों को सर्वोत्तम तथा अत्यंत प्रभावी ढंग से निष्पक्ष न्यायालय या अभिकरण के समक्ष प्रस्तुत करता है विवाद से संबंधित समस्त तथ्यात्मक वह भी देख सामग्री को एकत्रित करके न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करता है जिसके आधार पर न्यायालय इस मामले को निर्मित करता है।
किसी भी देश में विधि व्यवस्था इतनी सरल व सुगम नहीं है जहां कोई भी नागरिक अपने पक्ष को सीधा न्यायालय में समुचित रूप से प्रस्तुत कर सके अधिनियम एवं भी नियमों की भाषा में भी बहुत जटिल होती है जिसको समझने में समानता ही वैसे व्यक्ति की मदद ली जाती है जिसे अधिवक्ता कहा जाता है.
इस तरह अधिवक्ता विधि का जानकार व्यक्ति होता है जो न्याय प्रशासन ने सहायता करने के साथ-साथ वृत्तिक सलाह देता है.
Qualification for practice of law:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 मैं सभी व्यक्तियों को कोई भी व्यवसाय अपनाने की मूलभूत स्वतंत्र दी गई है परंतु किसी भी व्यवसाय को अपनाने के लिए भारतीय संविधान में कुछ मापदंडों को पूरा करना अनिवार्य दर्शाया गया है इसी संदर्भ में विधि व्यवसाय को अपनाने के संबंध में अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 30 प्रावधान किया गया है कि कोई व्यक्ति विधिक व्यवसाय के लिए कब हकदार होगा इस प्रावधान के अनुसार इस अधिनियम के उपबंधुओं के अध्ययन के रहते हुए ऐसा व्यक्ति जिसका नाम अधिवक्ताओं नामावली में प्रविष्ट है -
( 1) उच्चतम न्यायालय उच्च न्यायालय एवं अन्य अधीनस्थ न्यायालयों में
( 2) किसी न्यायाधिकरण अथवा साक्षी लेने हेतु विधिक रुप से प्राधिकृत व्यक्ति के समक्ष
( 3) ऐसे किसी व्यक्ति अथवा प्राधिकारी के समक्ष
जहां कोई अधिवक्ता तत समय प्रबंध किसी विधि के अधीन विधि व्यवसाय करने के लिए अधिकृत वह विधि व्यवसाय करने का हकदार है.
इससे यह स्पष्ट होता है कि किसी भी न्यायालय में विधि व्यवसाय के लिए किसी व्यक्ति का केवल विधि स्नातक होना ही पर्याप्त नहीं है अभी तो उसका अधिवक्ता नामावली में नाम प्रविष्ट होना भी आवश्यक है.
ऐसा नाम प्रविष्ट हो जाने पर अधिवक्ता किसी जांच अधिकारी के समक्ष भी पक्षकार की ओर से उपस्थित हो सकता है.
यहां उल्लेखनीय है कि अधिवक्ता केवल किसी प्रकार की ओर से पैरवी करने वाला अभिकर्ता ही नहीं होता अपितु वह न्यायालय का अधिकारी भी माना जाता है न्याय प्रशासन में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है.
अधिवक्ता के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति विधि व्यवसाय नहीं कर सकता -
अधिवक्ता अधिनियम की धारा 33 में यह स्पष्ट प्रावधान किया गया है कि ऐसा कोई भी व्यक्ति किसी न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में विधि व्यवसाय करने का हकदार नहीं होगा जिसका नाम अधिनियम के अंतर्गत अधिवक्ता नामावली में प्रवेश नहीं किया गया है.
इसी अधिनियम की धारा 45 में यह प्रावधान किया गया है कि कोई भी ऐसा व्यक्ति जो इस अधिनियम के अंतर्गत विधि व्यवसाय करने का हकदार नहीं है न्यायालय अथवा प्राधिकारी के समक्ष विधि व्यवसाय नहीं कर सकता है यदि कोई ऐसा व्यक्ति विधि व्यवसाय करता है तो उसका यह कृत्य अवैधानिक कृत्य माना जाएगा और उसे 6 महीने तक की अवधि के लिए कारावास से दंडित किया जा सकता है.
इस संबंध में राजेंद्र सिंह बनाम डॉ सुरेंद्र सिंह का महत्वपूर्ण मामला है इस मामले में न्यायालय ने कहा है कि -
विधि व्यवसाय एक आदर्श व्यवसाय है इस व्यवसाय के लिए बुद्धिमत्ता एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है अधिवक्ता को गरिमा शालीनता एवं अनुशासन के साथ अपने कर्तव्य का निर्वहन करना होता है अधिवक्ताओं की अपनी एक आचार संहिता होती है अतः कोई भी व्यक्ति तब तक विधि व्यवसाय नहीं कर सकता है जब तक उसके पास निर्धारित शैक्षणिक योग्यता धारण किए हुए तथा अधिवक्ता नामावली में नाम प्रविष्ट कराए बिना विधि व्यवसाय नहीं करता है तो उसे अधिनियम की धारा 45 के अंतर्गत दोष सिद्ध किया जा सकता है.
नीलगिरी बार एसोसिएशन बनाम डीके महालिंगम का मामला भी इसी प्रकार का है इस मामले में प्रत्याशी के पास ना तो विधि स्नातक की उपाधि थी और ना ही उसका नाम अधिवक्ता नामावली में प्रवेश था फिर भी वह लगातार 8 वर्षों तक न्यायालय में वकालत करता रहा जब उसे अभियोजक किया गया तो उसने अपने अपराध की स्वीकृति की विचारण न्यायालय ने उसे परिवीक्षा का लाभ दिया न्यायालय ने भी परीक्षा के आदेश को यथावत रखा लेकिन जब यह मामला उच्चतम न्यायालय में पहुंचा तो उच्चतम न्यायालय ने ऐसे व्यक्ति को परीक्षा का लाभ देना उचित नहीं समझा और उसको 6 महीने का कठोर कारावास तथा ₹5000 जुर्माने से दंडित किया जुर्माना जमा नहीं किए जाने पर 3 महीने के अतिरिक्त कारावास की सजा सुनाई उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि वकालत का व्यवसाय एक आदर्श एवं पवित्र व्यवसाय है अधिवक्ता का समाज में अपना एक विशिष्ट स्थान है जनसाधारण अधिवक्ता को आदर की दृष्टि से देखता है ऐसी स्थिति में यदि कोई व्यक्ति इस व्यवसाय को आघात पहुंचाने वाला कार्य करता है तो ऐसे किसी भी व्यक्ति को सहानुभूति का पात्र नहीं माना जाएगा ऐसे व्यक्तियों के लिए कठोर दही उचित दं
ड होगा.
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