विश्व का लिखित संविधान:
विश्व के किसी भी देश का संविधान भारत के संविधान जैसा विस्तृत नहीं है सर आई वर जेनिंग्स के मतानुसार भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़ा एवं विस्तृत संविधान है किंतु हमारे संविधान निर्माताओं को अपने राष्ट्र के की हालातों को ध्यान में रखकर ही इसका निर्माण करना पड़ा था उस वक्त देश के सम्मुख विभिन्न भौगोलिक राजनीतिक सामाजिक एवं ऐतिहासिक परिस्थितियां विद्यमान थी हमारे संविधान को विस्तृत एवं बृहद बनाने की में सबसे बड़ा अधिक योगदान है वह यह है कि इस संविधान में केंद्रीय सरकार के संगठन एवं संरचना के लिए ही उप बंद नहीं किया गया है बल्कि राज्यों की सरकारों के संगठन एवं संरचना के लिए प्रबंध किया गया है भारतीय संविधान राष्ट्र की सर्वोच्च विधि है संविधान की विशालता को लेकर भले ही कुछ आलोचक इसे वकीलों का स्वर्ग कहे परंतु राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक यही चाहता है कि उसमें हर प्रकार की ऐसी नीति संबंधी बातों की व्याख्या की जानी चाहिए जिससे वह यह महसूस कर सके कि भारत में सच अर्थों में प्रजातंत्र विद्यमान है.
संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक पंथनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य की स्थापना:
भारतीय संविधान की प्रमुख उपलब्धि भारत में सर्व प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना है यह प्रभुत्व संपन्न इसलिए है क्योंकि इसकी संप्रभुता किसी विदेशी सत्ता में नियत ना होकर भारत की जनता में निहित है यह बाहरी नियंत्रण से सर्वथा मुक्त है.
अपनी आंतरिक एवं बाह्य नीतियों का निर्धारण आप स्वयं भारत ही करता है अपने आंतरिक एवं बाह्य मामलों में वह अपनी इच्छा अनुसार कार्य एवं आचरण करने के लिए स्वतंत्र है भारत संयुक्त राष्ट्र संघ तथा राष्ट्रमंडल का सदस्य है राष्ट्रमंडल की सदस्यता स्वैच्छिक है इसका भारत की संप्रभुता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है.
रामास्वामी ने इसे एक ऐसी सौजन्य पूर्ण व्यवस्था मात्र बताया है जिसमें किसी तरह का संवैधानिक महत्व नियत नहीं है.
भारत में लोकतंत्र की स्थापना की गई है यहां की सरकार पूर्ण रूप से जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा चलाई जाती है यह जनता की जनता के लिए तथा जनता की ओर से चलाई जाती है इसका लक्ष्य जनसाधारण का कल्याण है सभी को आर्थिक एवं राजनीतिक समानता स्वतंत्रता और न्याय प्रदान करना तथा जन जन में बंधुत्व की भावना का सृजन करना इसने अपना पवित्र उद्देश्य बनाया है.
एकल नागरिकता की व्यवस्था
आत्मक संविधान का एक मुख्य लक्षण माना जाता है दोहरी नागरिकता अर्थात एक संघ की नागरिकता तथा दूसरे राज्य की नागरिकता दोनों में भिन्न-भिन्न अधिकार एवं कर्तव्य होते हैं संयुक्त राज्य अमेरिका में दोहरी नागरिकता की व्यवस्था की गई है लेकिन भारत में एकल नागरिकता को ही स्थान दिया गया है यहां का प्रत्येक नागरिक केवल भारत का नागरिक कहलाता है संविधान के अंतर्गत सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान किए गए हैं विशेषाधिकार तथा उन्मुक्त इयां भी एक जैसी हैं इसका सबसे बड़ा लाभ सभी व्यक्तियों में देशभक्ति भाईचारा एवं देश के प्रति समर्पण की भावना जागृत करना है.
वयस्क मताधिकार:
मैं चर्चा कर चुके हैं भारत में लोकतंत्र आत्मक गणराज्य की स्थापना की गई है यहां सरकार जनता की जनता के लिए और जनता द्वारा बनाई गई सरकार मानी जाती है इसका मुख्य कारण यह है कि यहां 18 वर्ष की आयु के प्रत्येक व्यक्ति को मताधिकार प्रदान किया गया है वह मनचाहे व्यक्ति के पक्ष में अपने मत का प्रयोग कर सकता है धर्म जाति लिंग वंश आदि के आधार पर मताधिकार में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया है यहां तक कि अर्थ और धन को भी मताधिकार के मार्ग में अड़चन नहीं बनने दिया गया है यह सच्चे प्रजातंत्र का प्रतीक है भारत का मतदाता चाहे वह अशिक्षित एवं निर्धन ही क्यों ना हो बढ़ा जागरूक है पिछला चुनाव इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कभी कांग्रेस की सरकार बहुमत से सत्ता में आई तो कभी जनता सरकार कहीं अन्नाद्रमुक की सरकार है तो कहीं तेलुगू देशम पार्टी की जब-जब जिस प्रकार सरकार ने जनता पर अत्याचार उठाना शुरू किया है तब तक उसे मुंह की खानी पड़ी है यह सब वयस्क मताधिकार की ही देन है.
एकात्मक संविधान:
आत्मक शासन पद्धति को अंगीकृत किया गया है लेकिन वह एक आश्चर्य है कि इसमें एकात्मक शासन पद्धति के तत्व व्यवस्थित हैं ऐसी विचित्र था शायद ही किसी देश के संविधान में देखने को मिलती हो सामान्य अवस्था में यहां राज्यों को पूर्ण स्वायत्तता मिली हैवी है लेकिन आप आज जैसी विशेष परिस्थितियों में यहां स्वायत्तता प्रतिबंधित हो जाती है और संपूर्ण संविधान एकात्मक संविधान का रूप धारण कर लेता है इनका मुख्य उद्देश्य राज्यों के हितों की अपेक्षा राष्ट्र के हित को सर्वोच्च स्थान प्राप्त करना है.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता:
एक प्रमुख विशेषता न्यायपालिका की स्वतंत्रता है यह सभी प्रकार के हस्तक्षेप से मुक्त है यानी डरता निर्भीकता एवं निष्पक्षता से अपना कर्तव्य निर्वाह करती है इसका स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होना आवश्यक है क्योंकि यह संविधान के संरक्षक है यह मूल अधिकारों की रक्षा करती है यह केंद्र और राज्यों के मध्य विवादों का निपटारा करती है यह संविधान के बंधुओं की व्यवस्था करती है यह स्वतंत्रता की सजक प्रहरी है.
समाजवाद एवं धर्मनिरपेक्ष:
संविधान में समाजवाद एवं धर्मनिरपेक्ष शब्दों को सम्मिलित किया जाना है इसके लोकतंत्रात्मक स्वरूप की पुष्टि करता है भारत में समाजवादी समाज की स्थापना करने का प्रयास ना केवल पूज्य बापू के सपनों को साकार करना है अपितु दरिद्र नारायण की सही अर्थों में सेवा भी करना है इसका संकल्प सभी व्यक्तियों को आर्थिक न्याय प्रदान करना है हमारे संविधान की यह भावना है कि कोई भी व्यक्ति मात्र आर्थिक अभाव के कारण न्याय एवं संवैधानिक उपचारों से वंचित न रह जाए.
इसकी एक और उपलब्धि धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करना है भारत में किसी धर्म विशेष को राजधानी के रूप में मान्य नहीं किया गया है यहां प्रत्येक व्यक्ति को अंतःकरण की स्वतंत्रता तथा किसी भी धर्म को अवैध रूप से मानने उसका आचरण एवं प्रचार करने का अधिकार है वह पूजा और अर्चना साधना और आराधना करने के लिए स्वतंत्र है.
अभिव्यक्तिया समाजवाद एवं धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल प्रारूप में सम्मिलित नहीं थी यह दोनों शब्द समाजवाद की परिभाषा दिया जाना अत्यंत कठिन है भारतीय परिपेक्ष में यह शब्द मिश्रित अर्थव्यवस्था का संकेत भी देता है जो व्यक्तिगत गतिविधियों का भी है कालांतर में संविधान के 42 वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ी गई हैं.
जहां धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न है या विश्वास धर्म और उपासना की स्वतंत्रता में परिलक्षित होता है.
संसदीय शासन प्रणाली का प्रादुर्भाव:
संघात्मक संविधान के अंतर्गत दो प्रकार की शासन पद्धति स्थापित की जा सकती है -
अध्यक्षात्मक
संसदीय
अध्यक्षात्मक शासन पद्धति में राष्ट्रपति देश का सर्वे सर्वा होता है यह कार्यकारिणी का वास्तविक प्रधान होता है समस्त कार्यकारिणी शक्तियां राष्ट्रपति में निहित होती है राष्ट्रपति का निर्वाचन सीधे जनता द्वारा किया जाता है अमेरिका इसका एक अच्छा उदाहरण है.
जबकि संसदीय शासन पद्धति में शासन की वास्तविक सप्ताह जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों में निहित होती है प्रतिनिधियों की इस सभा को मंत्री परिषद कहा जाता है जो संसद के प्रति उत्तरदाई होती है इसका प्रधान प्रधानमंत्री होता है राष्ट्रपति नाम मात्र का प्रधान माना जाता है संविधान में यद्यपि समस्त कार्यकारिणी शक्तियां राष्ट्रपति में निहित की गई है लेकिन वह मंत्रिपरिषद की सलाह से ही इन शक्तियों का प्रयोग करता है भारत में राष्ट्रपति की तुलना कभी-कभी इंग्लैंड के सम्राट से की जाती है जिसके बारे में कहा जाता है वह कोई गलती नहीं यही है कि वह अपने बलबूते पर कोई कार्य नहीं करता है.
मौलिक अधिकार:
धान की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि नागरिकों के मौलिक अधिकार है मौलिक अधिकारों का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के सर्वांगीण विकास करना है लंबे समय तक दासता का दुख भोगने के कारण भारतीय मानसिकता का विकास अवरुद्ध जा रहा है अतः उसकी दास्तां पूर्ण मानसिकता को स्वतंत्रता का अभाव और आभास कराना आवश्यक था फिर स्वतंत्रता के बाद प्रत्येक भारती की है आशा और आकांक्षा भी थी कि इसी के अनुरूप संविधान में नागरिकों को कतिपय महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार प्रदान किए गए.
समानता का अधिकार स्वतंत्रता का अधिकार प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार वंदीकरण एवं निरोध के विरोध संवैधानिक संरक्षण शोषण के विरुद्ध अधिकार धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार शिक्षा और सांस्कृतिक संबंधी अधिकार संवैधानिक उपचारों का अधिकार संपत्ति का अधिकार व्यापार वाणिज्य और समागम की स्वतंत्रता का अधिकार आदि.
मौलिक कर्तव्य:
अधिकार और कर्तव्य दोनों एक दूसरे के पूरक हैं दोनों गाड़ियों के दो पहियों के समान है एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि जहां अधिकार है वहां कर्तव्य है एक व्यक्ति का अधिकार दूसरे व्यक्ति का कर्तव्य है यह सही है कि मनुष्य कर्तव्यों की अपेक्षा अधिकारों पर ज्यादा ध्यान देता है और यही कारण है कि हमारे संविधान में आरंभ से ही मौलिक अधिकारों को सम्मिलित किया गया है लेकिन कालांतर में यह महसूस किया गया है कि यह है व्यवस्था कर्तव्यों के अभाव में अधूरी है अतः सन 1976 में 42 वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में मौलिक कर्तव्यों का भाग 4 जोड़ा गया है इसमें नागरिकों के 10 मौलिक कर्तव्य बताए गए हैं जिनमें संविधान का पालन तथा राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करना सम्मिलित है यह भारत की एकता अखंडता एवं संप्रभुता की रक्षा का आह्वान करता है.
राज्य के नीति निर्देशक तत्व:
भारत के संविधान में एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का स्वप्न सजाया गया है यही हमारे बापू की भी इच्छा और आकांक्षा थी वह चाहते थे कि भारत के प्रत्येक बालक को अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा मिले और वह निशुल्क हो उत्पादन के साधनों का न्यायोचित वितरण और जन जन का भी जीवन स्तर ऊंचा उठाने पालिका एवं कार्यपालिका का पृथक्करण हो सत्ता के विकेंद्रीकरण की दिशा में गांवों में पंचायती राज की स्थापना हो लेकिन यह सब कुछ एकदम कर पाना संभव नहीं था क्योंकि स्वतंत्र भारत के समक्ष उस समय इनसे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण समस्याएं थी जिनका निराकरण किया जाना आवश्यक था अतः हमने अपने संविधान में राज्यों को यह निर्देश देना उचित समझा कि यथा समय इस दिशा में कदम उठाएं ने राज्य के नीति निर्देशक तत्व नाम दिया गया.
या ना केवल व्यक्ति के विकास के लिए अभी तू राज्यों में राष्ट्र के विकास के लिए भी आवश्यक है इसी संदर्भ में हम कह सकते हैं कि भाग 4 हमारे संविधान की आत्मा है नहीं होने के कारण यह नीति निदेशक तत्व आरंभ में निचली हो से लगे राज्यों की इनके प्रति उपेक्षा वृद्धि भी रही परंतु संविधान के 26 नियम 42 में संशोधनों ने इन नीति निर्देशक तत्वों के महत्व को बढ़ा दिया और इन्हें मूल अधिकारों से भी ऊपर की पंक्ति में ला दिया अब यह व्यवस्था कर दी गई है कि यदि निर्देशक तत्वों के क्रियान्वयन हेतु ऐसी कोई विधि बनाई जाती है जो संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 19 का अतिक्रमण करने वाली हो तो उसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती.
लचीलापन एवं कठोरता का अद्भुत समन्वय:
संशोधन की दृष्टि से संविधान या तो कठोर होता है या लचीला कठोर संविधान वह होता है जिसमें संशोधन है एक विशेष प्रक्रिया द्वारा ही किया जा सकता है जो अत्यंत कठोर होती है इसमें संशोधन एक तेरी खीर माना जाता है जबकि लचीलापन संविधान में संशोधन की प्रक्रिया अत्यंत सरल होती है जब चाहे उसमें सामान प्रक्रिया द्वारा संशोधन किया जा सकता है दोनों प्रक्रियाओं का अपना-अपना महत्व संविधान का कठोर होना इसलिए आवश्यक है ताकि जब चाहे तब उसकी सर्वोच्च था एवं उसके लोक कल्याणकारी ढांचे को तोड़ा मरोड़ा नहीं जा सके दूसरी तरफ उसका लचीलापन हो ना इसलिए आवश्यक है ताकि काल एवं परिस्थितियों के अनुसार उसे डाला जा सके.
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