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हिंदू विधि के अंतर्गत वैद्य प्रश्नों के लिए आवश्यक तत्व क्या है? What are the essential of valid customs under Hindu law?

प्रथाओं की परिभाषा: - रूढी और प्रथा पदों से अभिप्रेत है ऐसा कोई भी नियम जिसने दीर्घकाल से एक लगातार और एकरूपता से अनुपालित होने के कारण किसी स्थानीय क्षेत्र जनजाति समुदाय समूह कुटुंब में हिंदुओं के बीच विधि का बल प्राप्त कर लिया है.

            अतः प्रथा वह नियम है जिसने किसी विशेष जाति अथवा वर्ग अथवा किसी विशेष जिले अथवा परिवार में दीर्घकाल से प्रथा के रूप में अपनाए जाने के फलस्वरूप कानून की शक्ति प्राप्त कर ली है.

           पृवी काउंसिल की जुडिशियल कमेटी ने प्रथाओं के विषयों में यह कहा था कि प्रथाएं किसी स्थान विशेष जाति अथवा परिवार विशेष के चिरकालीन प्रयोग के कारण विधि से मान्यता प्राप्त नियम है ये प्राचीन हो निश्चित हो तथा विवेकपूर्ण हो और यदि विधि के सामान्य नियमों के विरोध में हो तो उसका आशय बहुत ही सावधानी से निकालना चाहिए.

           उच्चतम न्यायालय ने आई शिरोमणि बनाम आई हेम  कुमार के वाद में यह निर्धारित किया कि किसी भी प्रथा को मान्यता प्रदान करने के लिए तथा न्यायालय द्वारा अपनाने के लिए यह आवश्यक है कि प्रथा प्राचीन हो निश्चित हो तथा युक्ति युक्त हो.

       देवानइ अछी बनाम चिदंबरम के वाद में यह कहना है कि किसी भी प्रथा अथवा लोकरीति को बाध्यकारी होने के लिए यह आवश्यक है कि वह प्राचीनतम स्पष्ट तथा युक्तियुक्तता के गुणों से युक्त हो कोई भी प्रथा जो विधि विरुद्ध व अनैतिक हो तथा जनहित के विरुद्ध उसे मान्य नहीं समझा जाएगा.

           किसी भी प्रथा को विधि या नियम जैसी मान्यता मिलने के लिए यह आवश्यक है कि जो पक्षकार इसका  दावा कर रहा है वह यह साबित करें कि वह पृथा प्राचीन निश्चित एवं युक्तियुक्त है.

              अतः हम कह सकते हैं कि पृथायें वे  नियम है जो किसी परिवार वर्ग अथवा स्थान विशेष में बहुत पहले से चले आने के कारण विधि से बाध्यकारी मान्यता प्राप्त कर लेते हैं.


प्रथा और रूढि में अंतर : - यद्यपि प्रथा एवं रूढि  एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द है परंतु उनमें एक अति सूक्ष्म भेद है प्रथा उन प्राचीन नियमों को संबोधित करती है जिनमें प्राचीनता दृष्टिगोचर होती है रूढि अपेक्षाकृत कम प्राचीन होती है एवं कुछ काल पहले से ही प्रचलित होते हैं.


प्रथाओं के प्रकार: -

     हिंदू विधि के अनुसार प्रथाओं को तीन भागों में बांटा जा सकता है -

( 1) स्थानीय प्रथाएं (देशचार)

( 2) वर्गीय प्रथाएं (लोकाचार)

( 3) पारिवारिक प्रथाएं (कुलाचार)

( 1) स्थानीय प्रथाएं (देशाचार): - इनमें वे प्रथाएं हैं  जो किसी विशेष स्थान अथवा प्रदेश में प्रचलित होती हैं.

             जुडिशियल कमेटी ने यु सुनामी बनाम नवाब ( I.L.R.1941पू.154) के वाद में यह निरूपित किया है कि यह निश्चित रूप से स्थापित हो चुका है कि किसी प्रदेश में प्रतिपादित प्रथाएं इस बात से सम्बल प्राप्त करती है कि वह बहुत समय से प्रचलित है उनको बहुत प्राचीन होना चाहिए किंतु इसका यह आशय नहीं है कि वे प्रत्येक बार इतनी प्राचीन हो कि मानव स्मृति से परे.

(2)वर्गीय प्रथायें(लोकाचार): - ये वे प्रथाएं हैं जो किसी जाति विशेष के लोगों पर लागू होती है यह प्रथा उस जाति के लोगों को चाहे वह किसी भी सीमा क्षेत्र में रहते हो आबध्य करती है जैनों में पति की अनुमति के बिना भी विधवा को दत्तक  लेने की प्रथा इस प्रकार की प्रथा थी..

( 3) पारिवारिक प्रथाएं (कुलाचार): - वे प्रथायें जो किसी परिवार में लागू होती हैं इस प्रकार की प्रथा के अंतर्गत आती है जैसे जेष्ठाधिकार तथा अविभाज्य संपदा वाद के उत्तराधिकार के नियम भी प्रथा थी.

प्रथाओं के आवश्यक तत्व: -
वैद्य प्रथाओं में निम्न तत्वों का होना आवश्यक है -

( 1) प्राचीनता

( 2) निरंतरता

( 3) निश्चित तत्व

( 4) युक्तियुक्तता

( 5) प्रमाण भार

( 6) नैतिकता एवं लोक नीति के विरुद्ध ना होना

( 7 )विधान तथा अधिनियम के विरुद्ध ना होना

( 8) आपसी समझौते द्वारा निर्मित ना होना..

           उच्चतम न्यायालय ने एक निर्णय में प्रथाओं के विषय में यह कहा था कि किसी भी प्रथा को मान्यता प्रदान करने के लिए न्यायालय द्वारा उसे अपनाया जाने के लिए यह आवश्यक है कि प्रथा प्राचीन और निश्चित हो तथा युक्तियुक्त तो हो.

प्राचीनता: - एक मान्य प्रथा के लिए यह आवश्यक है कि उसे प्राचीन होना चाहिए यदि कोई प्रथा  100 वर्ष या इससे अधिक की अवधि से चली आ रही है तो वह प्राचीन कहलाएगी.

( 5) अपरिवर्तनशीलता तथा निरंतरता: - पृथाओं की वैधता के लिए यह आवश्यक है कि यह निरंतर होनी चाहिए निरंतरता का अर्थ है प्रथा का लगातार रूप से पालन होना इस संबंध में पृवी काउंसिल ने कहा है कि पारिवारिक रूढियों के लिए यह आवश्यक है कि वे  स्पष्ट हो  अपरिवर्तनशील तथा निरंतरता युक्त हो  तथा उनकी निरंतरता में त्रुटि केवल घटनावश हुई हो.

( 3) निश्चिता: - किसी भी विधि मान्य प्रथा का तीसरा आवश्यक तत्व यह है कि इसे निश्चित होना चाहिए यदि कोई रूढि अनिश्चित अर्थात  अस्पष्ट है तो उसे मान्यता नहीं मिल सकती है.

( 4)युक्तियुक्तता :  किसी भी प्रथा  के लिए यह आवश्यक है कि वह प्राचीन और निश्चित हो तथा युक्तियुक्त हो यदि प्रथाएं तर्क अथवा विवेक से परे हैं तो उन्हें मान्यता नहीं प्रदान की जाएगी इसके साथ ही यह बात भी सच है कि कोई भी प्रथा कारणों पर आधारित नहीं होती यद्यपि अर्थहीन तथा प्रथा विधि बनाने के लिए अमान्यकर होती है.

( 5) प्रमाण भार: - किसी भी प्रथा का सिद्ध भार (burden of proof customs) उस व्यक्ति पर होता है जो विधि की विरोधी प्रथा का सहारा लेकर किसी अधिकार को सिद्ध करना चाहता है यह सिद्ध करने के लिए किसी परिवार ने अपने प्रथाओं को जो मूल रूप से चली आ रही थी त्याग दिया है और देश की विधि को स्वीकार कर लिया है इस तथ्य का प्रमाण भार उस व्यक्ति पर होता है जो यह तथ्य प्रस्तुत करता है.

( 6) नैतिकता तथा लोक रीति के विरुद्ध ना होना: - मनु के अनुसार कोई भी प्रथा  नैतिकता और लोक नीति के विरुद्ध होकर मान्य  नहीं हो सकती है रूढि का प्राचीन नाम सदाचार है हर समाज में नैतिक धारणाएं भिन्न भिन्न हो सकती है वहीं रूढि होगी जो समकालीन समाज की धारणाओं के अनुरूप को हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी यह कहा गया है कि प्रथाएं अच्छे आचरण वाले व्यक्तियों के द्वारा अपनाई गई नीतियों से संबंध रखती हैं तथा वे धर्म शास्त्र के विरोध में अथवा जनहित के विरोध में ना हो और अनैतिक ना हो वर्तमान हिंदू समाज की धारणाओं के आधार पर वह प्रथा जिसके अंतर्गत पत्नी बिना पति की अनुमति के उसे छोड़कर दूसरा विवाह कर सकती है यह वह प्रथा जिसके अंतर्गत पति कोई धन देकर बिना पत्नी की स्वीकृति से उससे विवाह विच्छेद कर सकता है यह रुड़ी जिसके अंतर्गत गोद लेने वाला पिता बालक के सगे पिता को कोई धनराशि देता है अनैतिक होने के कारण और शून्य है।

( 7) विधान तथा अन्य नियमों द्वारा निश्चित ना होना: - प्रथा के मध्य होने के लिए यह आवश्यक है कि वह किसी विधान अथवा अधिनियम द्वारा निश्चित नहीं होनी चाहिए.

( 8) आपसी समझौते द्वारा निर्मित ना होना: - प्रथम आपसी समझौते से निर्मित नहीं की जा सकती है कुछ व्यक्तियों के आपसी समझौते द्वारा कोई भी इस प्रकार की प्रथा निर्धन नहीं की जा सकती है जो एक नियम का रूप धारण कर ले तथा अन्य लोगों के लिए यह बाध्यकारी हो.

प्रथाओं का महत्व: - बहुत प्रारंभ काल से ही हिंदू विधि में प्रथाओं को विधि का एक महत्वपूर्ण स्रोत माना गया है और उन्हें प्राप्त शास्त्र पाठकों पर आधारित माना गया है शास्त्र पाठ में पर आधारित होने से इन्हें की प्रमाणिकता के समान होने के साथ ही हिंदू विधि का यह सिद्धांत है की विधि ईश्वर निर्मित नहीं है  . हिंदू ऋषि यों ने उत्तम रीति रिवाज के विषय में यहां तक मान्यता दी है कि वह हिंदुओं पर बाध्यकारी होती है मनु ने भी कहा है कि पुराने रीति-रिवाजों में विधि की शक्ति है.

       अधिनियम हिंदू विधि के अंतर्गत प्रथाओं को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया है हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अधीन प्रथाओं की प्रमाणिकता के आधार पर शॉपिंग एवं प्रति पिंड संबंधों में भी अनुमति दे दी गई है इसी प्रकार विवाह संस्था चलित प्रथाओं के आधार पर संपन्न किए जाने की व्यवस्था माननीय बताई गई है हिंदू दत्तक ग्रहण अधिनियम 1956 के अधीन 15 वर्ष से अधिक आयु वाले बालक तथा बालिकाओं को प्रथाओं की प्रमाणिकता के आधार पर दत्तक ग्रहण में लिया जा सकता है इस प्रकार प्रथाओं को विधिक मान्यता प्रदान कर वर्तमान अधिनियम में उनकी महत्ता को कायम रखा है.

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