अपराध शास्त्र एक व्यापक और बहु-विषयक क्षेत्र है जो अपराध, अपराधियों, और न्यायिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है। इस क्षेत्र में विभिन्न सम्प्रदाय और दृष्टिकोण हैं जो अपराध के विभिन्न पहलुओं को समझने और उनका विश्लेषण करने का प्रयास करते हैं। प्रमुख सम्प्रदाय निम्नलिखित हैं:-→
1.शास्त्रीय सम्प्रदाय (Classical School):-→
शास्त्रीय सम्प्रदाय का उदय 18वीं शताब्दी में हुआ और इसके प्रमुख विचारक सेसर बेक्कारिया और जेरेमी बेंथम थे। इस सम्प्रदाय का मानना है कि अपराध एक स्वेच्छापूर्ण क्रिया है और अपराधियों को उनकी पसंद के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण के अनुसार, कानून को स्पष्ट और निष्पक्ष होना चाहिए और दंड को अपराध के अनुपात में होना चाहिए ताकि यह अपराधियों को पुनः अपराध करने से रोक सके।
(2. )सकारात्मक सम्प्रदाय (Positivist School):→
सकारात्मक सम्प्रदाय 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उभरा और इसके प्रमुख विचारक सीज़र लोम्ब्रोसो, एनरिको फेर्री, और रैफेल गारोफालो थे। इस सम्प्रदाय का मानना है कि अपराध एक सामाजिक, जैविक, और मनोवैज्ञानिक कारकों के संयोजन का परिणाम है। लोम्ब्रोसो ने अपराधियों के शारीरिक लक्षणों का अध्ययन किया और यह निष्कर्ष निकाला कि कुछ लोग जन्मजात अपराधी होते हैं। इस दृष्टिकोण के अनुसार, अपराधियों के पुनर्वास और सुधार पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
( 3.) सामाजिक संरचना सम्प्रदाय (Social Structure School):-→
यह सम्प्रदाय अपराध को सामाजिक संरचना और सामाजिक परिस्थितियों का परिणाम मानता है। सामाजिक असमानता, गरीबी, और सामाजिक अलगाव को अपराध के प्रमुख कारणों के रूप में देखा जाता है। रॉबर्ट मर्टन का अनोमी सिद्धांत और क्लिफोर्ड शॉ और हेनरी मैके का सामाजिक विघटन सिद्धांत इस सम्प्रदाय के प्रमुख सिद्धांत हैं। इस दृष्टिकोण के अनुसार, सामाजिक सुधार और नीति निर्माण के माध्यम से अपराध को कम किया जा सकता है।
( 4. )मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय (Psychological School):→
मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय अपराध को व्यक्तिगत मानसिकता और मनोवैज्ञानिक विकारों का परिणाम मानता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, अपराधी का व्यवहार उसके मानसिक स्वास्थ्य, व्यक्तित्व विकारों, और जीवन के शुरुआती अनुभवों से प्रभावित होता है। सिगमंड फ्रायड और हंस आइसेन्क जैसे मनोवैज्ञानिकों के कार्य इस सम्प्रदाय के अंतर्गत आते हैं। अपराधियों की मनोवैज्ञानिक परीक्षण और उपचार के माध्यम से सुधार पर जोर दिया जाता है।
(5.)मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय (Psychoanalytical School):→
इस सम्प्रदाय का प्रमुख योगदान सिगमंड फ्रायड ने दिया है। यह दृष्टिकोण अपराध को अवचेतन मानसिक प्रक्रियाओं और मनोवैज्ञानिक संघर्षों का परिणाम मानता है। फ्रायड के अनुसार, अवचेतन मन के विभिन्न स्तरों में दबी इच्छाएं और संघर्ष अपराधी व्यवहार के रूप में प्रकट होते हैं। मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा के माध्यम से इन अवचेतन कारकों की पहचान और उपचार पर जोर दिया जाता है।
निष्कर्ष:→
अपराध शास्त्र के विभिन्न सम्प्रदाय अपराध के कारणों और समाधानों के विभिन्न पहलुओं को प्रस्तुत करते हैं। जहां शास्त्रीय सम्प्रदाय अपराध को स्वैच्छिक क्रिया मानता है, वहीं सकारात्मक सम्प्रदाय इसे जैविक और सामाजिक कारकों का परिणाम मानता है। सामाजिक संरचना सम्प्रदाय सामाजिक असमानता को अपराध का मूल कारण मानता है, जबकि मनोवैज्ञानिक और मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय अपराध को मानसिक और मनोवैज्ञानिक कारकों से जोड़ते हैं। इन सम्प्रदायों के समन्वय से ही अपराध की व्यापक और सटीक समझ प्राप्त की जा सकती है और समाज में प्रभावी नीति निर्माण किया जा सकता है।
शास्त्रीय सम्प्रदाय अपराध शास्त्र में एक प्रमुख दृष्टिकोण है जो 18वीं शताब्दी में उभरा। इस सम्प्रदाय के प्रमुख विचारक सेसर बेक्कारिया और जेरेमी बेंथम थे। शास्त्रीय सम्प्रदाय का मुख्य सिद्धांत यह है कि मनुष्य तर्कसंगत प्राणी हैं और वे अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार होते हैं। उनके अनुसार, अपराध एक स्वेच्छापूर्ण क्रिया है और अपराधियों को उनकी पसंद के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।
सिद्धांत:→
(1.)स्वतंत्र इच्छा (Free Will): → मनुष्य तर्कसंगत प्राणी हैं जो स्वतंत्र इच्छा के आधार पर निर्णय लेते हैं।
(2.)आनंद और पीड़ा (Pleasure and Pain):→ लोग अपने कार्यों के परिणामस्वरूप आनंद और पीड़ा के संतुलन को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेते हैं।
(3.)दंड का निवारक प्रभाव (Deterrence): → दंड का उद्देश्य अपराधियों को दंडित करना नहीं, बल्कि समाज में अन्य लोगों को अपराध करने से रोकना है।
(4.)समानता (Equality): → कानून और दंड सभी व्यक्तियों के लिए समान होने चाहिए।
उदाहरण:→
मान लीजिए कि किसी शहर में चोरी की घटनाएं बढ़ रही हैं। शास्त्रीय सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से इस समस्या को हल करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:→
(1.)कानून की स्पष्टता (Clear Laws): → सरकार चोरी के खिलाफ स्पष्ट और कड़े कानून बनाएगी ताकि सभी लोग जान सकें कि चोरी करना एक गंभीर अपराध है।
(2.)दंड की निश्चितता (Certainty of Punishment): → चोरी करने पर निश्चित और अपरिहार्य दंड का प्रावधान किया जाएगा ताकि अपराधी यह जान सकें कि पकड़े जाने पर उन्हें निश्चित रूप से सजा मिलेगी।
(3.)दंड का अनुपात (Proportional Punishment): → दंड चोरी के गंभीरता के अनुरूप होगा, यानी छोटी चोरी पर कम दंड और बड़ी चोरी पर अधिक दंड होगा। इससे लोग छोटे-मोटे अपराध करने से भी बचेंगे।
(4.)दंड का त्वरित और सार्वजनिक रूप से लागू होना (Swift and Public Punishment): → दंड तुरंत और सार्वजनिक रूप से लागू किया जाएगा ताकि यह दूसरों के लिए एक उदाहरण बन सके और लोग अपराध करने से डरें।
सेसर बेक्कारिया के योगदान:→
सेसर बेक्कारिया ने अपनी पुस्तक "ऑन क्राइम्स एंड पनिशमेंट्स" (1764) में शास्त्रीय सम्प्रदाय के सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया। उन्होंने तर्क दिया कि:→
(1.) दंड का उद्देश्य अपराधियों को सुधारना और समाज में अपराध को रोकना होना चाहिए।
(2.) दंड को अपराध के अनुपात में होना चाहिए ताकि यह उचित और न्यायसंगत हो।
(3. )अत्यधिक क्रूर दंड के बजाय, निश्चित और त्वरित दंड अधिक प्रभावी होते हैं।
निष्कर्ष:→
शास्त्रीय सम्प्रदाय अपराध शास्त्र में एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण है जो तर्क, स्वतंत्र इच्छा, और दंड के निवारक प्रभाव पर जोर देता है। इसके सिद्धांत आज भी कई न्यायिक प्रणालियों का आधार हैं और समाज में अपराध को नियंत्रित करने में सहायक होते हैं।
सकारात्मक सम्प्रदाय (Positivist School):→ अपराध शास्त्र का एक प्रमुख दृष्टिकोण है जो 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उभरा। इस सम्प्रदाय का मानना है कि अपराध केवल व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा का परिणाम नहीं है, बल्कि यह जैविक, मनोवैज्ञानिक, और सामाजिक कारकों के संयोजन का परिणाम है। इस सम्प्रदाय के प्रमुख विचारक सीज़र लोम्ब्रोसो, एनरिको फेर्री, और रैफेल गारोफालो थे।
प्रमुख सिद्धांत:→
(1.)जैविक कारक (Biological Factors): →
कुछ लोग जन्म से ही अपराध की प्रवृत्ति रखते हैं। सीज़र लोम्ब्रोसो ने अपने अनुसंधान में यह निष्कर्ष निकाला कि अपराधियों के शारीरिक लक्षण सामान्य लोगों से अलग होते हैं।
(2.)मनोवैज्ञानिक कारक (Psychological Factors): → व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य, व्यक्तित्व विकार, और शुरुआती जीवन के अनुभव अपराधी व्यवहार को प्रभावित कर सकते हैं।
(3.)सामाजिक कारक (Social Factors): →
समाज की संरचना, सामाजिक असमानता, गरीबी, और अन्य सामाजिक परिस्थितियां भी अपराध को बढ़ावा देती हैं।
उदाहरण:→
मान लीजिए कि एक व्यक्ति लगातार चोरी कर रहा है। सकारात्मक सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से इस व्यक्ति के अपराधी व्यवहार के पीछे निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:
(1.)जैविक कारण: → इस व्यक्ति के परिवार में अपराधी प्रवृत्ति के लोग हो सकते हैं, जिससे यह प्रवृत्ति अनुवांशिक रूप से उसमें आ गई हो।
(2.)मनोवैज्ञानिक कारण: → इस व्यक्ति का बचपन में मानसिक या भावनात्मक शोषण हुआ हो सकता है, जिससे उसमें नकारात्मक व्यवहार विकसित हो गया हो। या फिर उसे किसी मानसिक विकार से जूझना पड़ रहा हो, जिससे वह अपनी प्रवृत्तियों को नियंत्रित नहीं कर पा रहा हो।
(3.)सामाजिक कारण: → इस व्यक्ति का पालन-पोषण एक ऐसे वातावरण में हुआ हो सकता है जहाँ गरीबी, बेरोजगारी, और शिक्षा की कमी है। ऐसी परिस्थितियाँ व्यक्ति को अपराध की ओर धकेल सकती हैं।
सीज़र लोम्ब्रोसो का योगदान:-→
सीज़र लोम्ब्रोसो ने अपराधियों के शारीरिक लक्षणों का अध्ययन किया और यह निष्कर्ष निकाला कि कुछ लोग "जन्मजात अपराधी" होते हैं। उन्होंने पाया कि अपराधियों के शारीरिक लक्षण, जैसे- बड़ा जबड़ा, उभरे हुए चीकबोन, असामान्य कान आदि, सामान्य लोगों से अलग होते हैं। हालाँकि, लोम्ब्रोसो के सिद्धांत आज पूरी तरह मान्य नहीं हैं, लेकिन उन्होंने अपराध शास्त्र में एक नई दिशा प्रदान की।
सुधारात्मक उपाय:→
सकारात्मक सम्प्रदाय के अनुसार, अपराधियों को सुधारने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:→
(1.)मनोवैज्ञानिक उपचार: → मानसिक विकारों से जूझ रहे अपराधियों का उपचार किया जाना चाहिए।
(2.)सामाजिक सुधार: → समाज में शिक्षा, रोजगार, और सामाजिक समानता को बढ़ावा देना चाहिए ताकि लोग अपराध की ओर न बढ़ें।
(3.)पुनर्वास कार्यक्रम: → अपराधियों को समाज में पुनः स्थापित करने के लिए पुनर्वास कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए।
निष्कर्ष:-→
सकारात्मक सम्प्रदाय अपराध के पीछे छिपे जैविक, मनोवैज्ञानिक, और सामाजिक कारकों का अध्ययन करता है। यह दृष्टिकोण अपराधियों को सुधारने और पुनर्वासित करने पर जोर देता है, न कि केवल उन्हें दंडित करने पर। इस सम्प्रदाय का उद्देश्य अपराध को समझना और उसके कारणों का समाधान करना है ताकि समाज में अपराध की घटनाओं को कम किया जा सके।
सामाजिक संरचना सम्प्रदाय (Social Structure School) :→ अपराध शास्त्र का एक प्रमुख दृष्टिकोण है जो समाज में अपराध की घटनाओं को समझने के लिए सामाजिक परिस्थितियों और संरचनाओं का अध्ययन करता है। इस सम्प्रदाय का मानना है कि समाज की संरचना और उसमें व्याप्त असमानता, गरीबी, और सामाजिक अलगाव अपराध को बढ़ावा देने वाले प्रमुख कारक हैं।
प्रमुख सिद्धांत:→
(1.)सामाजिक असमानता (Social Inequality): →समाज में व्याप्त आर्थिक, शैक्षिक, और सामाजिक असमानता अपराध के लिए प्रमुख जिम्मेदार होती है।
(2.)गरीबी (Poverty): → गरीबी और आर्थिक कठिनाइयों के कारण लोग अपराध करने के लिए मजबूर हो सकते हैं।
(3.)सामाजिक अलगाव (Social Disorganization): →समुदायों में सामाजिक संबंधों की कमजोरी और सामूहिक नियंत्रण की कमी अपराध की दर को बढ़ाती है।
(4.)सामाजिक तनाव (Social Strain): →रॉबर्ट मर्टन का अनोमी सिद्धांत बताता है कि जब समाज के लक्ष्य और उन्हें प्राप्त करने के साधनों के बीच असंगति होती है, तो लोग अपराध की ओर बढ़ते हैं।
प्रमुख सिद्धांतकार और उनके योगदान→
(1.)रॉबर्ट मर्टन (Robert Merton): →मर्टन का अनोमी सिद्धांत (Strain Theory) यह बताता है कि समाज में आर्थिक और सामाजिक सफलता के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जब वैध साधन उपलब्ध नहीं होते, तो लोग गैरकानूनी तरीकों से इन लक्ष्यों को प्राप्त करने की कोशिश करते हैं।
(2.)क्लिफोर्ड शॉ और हेनरी मैके (Clifford Shaw and Henry McKay): →इनका सामाजिक विघटन सिद्धांत (Social Disorganization Theory) बताता है कि शहरी क्षेत्रों में समुदायों की सामाजिक संरचना के टूटने से अपराध की दर बढ़ती है।
उदाहरण:→
मान लीजिए कि एक शहर के एक गरीब इलाके में अपराध की दर बहुत अधिक है। सामाजिक संरचना सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से इस स्थिति को निम्नलिखित कारणों से समझा जा सकता है:→
(1.)सामाजिक असमानता: → इस इलाके में रहने वाले लोग आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं। उनके पास रोजगार के पर्याप्त अवसर नहीं हैं और उनकी आय बहुत कम है। आर्थिक असमानता अपराध को बढ़ावा देती है क्योंकि लोग अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए अपराध की ओर मुड़ सकते हैं।
(2.)गरीबी:→ इस इलाके में गरीबी की दर बहुत अधिक है। लोग अपने परिवार की बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए चोरी, डकैती, और अन्य अपराध कर सकते हैं।
(3.)सामाजिक अलगाव: →इस इलाके में समुदायों के बीच आपसी संबंध कमजोर हैं। लोग एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते और सामूहिक नियंत्रण की कमी है। इससे अपराधियों को अपराध करने के लिए अनुकूल वातावरण मिलता है।
(4.)सामाजिक तनाव: → मर्टन के अनोमी सिद्धांत के अनुसार, इस इलाके के लोग भी समाज में आर्थिक और सामाजिक सफलता प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन उनके पास वैध साधनों की कमी है। इसलिए, वे गैरकानूनी तरीकों का सहारा लेते हैं।
सुधारात्मक उपाय:→
सामाजिक संरचना सम्प्रदाय के अनुसार, अपराध को कम करने के लिए निम्नलिखित सुधारात्मक उपाय किए जा सकते हैं:→
(1.)आर्थिक सुधार: → गरीब और पिछड़े इलाकों में रोजगार के अवसर बढ़ाए जाने चाहिए और लोगों की आय बढ़ाने के उपाय किए जाने चाहिए।
(2.)शैक्षिक सुधार: → शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार किया जाना चाहिए और सभी लोगों को उच्च शिक्षा तक पहुंच सुनिश्चित की जानी चाहिए।
(3.)सामाजिक पुनर्गठन: → समुदायों के बीच आपसी संबंध और विश्वास को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। सामूहिक गतिविधियों और कार्यक्रमों के माध्यम से सामाजिक एकता को मजबूत किया जा सकता है।
(4.)नीतिगत सुधार: → सरकार को ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जो सामाजिक असमानता को कम करें और सभी लोगों को समान अवसर प्रदान करें।
निष्कर्ष:→
सामाजिक संरचना सम्प्रदाय अपराध के पीछे छिपे सामाजिक और आर्थिक कारणों को उजागर करता है। यह दृष्टिकोण बताता है कि अपराध को कम करने के लिए समाज में व्याप्त असमानता, गरीबी, और सामाजिक अलगाव को दूर करना आवश्यक है। सामाजिक सुधार और नीतिगत बदलाव के माध्यम से ही एक सुरक्षित और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना की जा सकती है।
मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय (Psychological School) : →अपराध शास्त्र का एक प्रमुख दृष्टिकोण है जो अपराधी व्यवहार को समझने के लिए व्यक्ति के मानसिकता, मानसिक स्वास्थ्य, और मनोवैज्ञानिक कारकों का अध्ययन करता है। इस सम्प्रदाय का मानना है कि अपराधी व्यवहार व्यक्ति के मानसिक और भावनात्मक पहलुओं से प्रभावित होता है।
प्रमुख सिद्धांत:→
(1.)व्यक्तित्व विकार (Personality Disorders):→ कुछ व्यक्तित्व विकार, जैसे एंटी-सोशल पर्सनालिटी डिसऑर्डर (ASPD) या साइकोपैथी, व्यक्ति को अपराधी प्रवृत्ति की ओर ले जा सकते हैं।
(2.)मनोवैज्ञानिक तनाव (Psychological Stress): → जीवन में अत्यधिक तनाव और मानसिक दबाव व्यक्ति को अपराध करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।
(3.)सीखने के सिद्धांत (Learning Theories):→ व्यक्ति का व्यवहार उसके जीवन में प्राप्त अनुभवों और शिक्षा पर निर्भर करता है। आपराधिक व्यवहार भी सीखा जा सकता है।
(4.)मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण (Psychoanalytic Perspective): → फ्रायड के अनुसार, अवचेतन मानसिक संघर्ष और बचपन के अनुभव अपराधी व्यवहार को प्रभावित कर सकते हैं।
प्रमुख सिद्धांतकार और उनके योगदान:→
(1.)सिगमंड फ्रायड (Sigmund Freud): → फ्रायड का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत बताता है कि अपराध अवचेतन मानसिक प्रक्रियाओं और बचपन के अनुभवों का परिणाम हो सकता है। उनके अनुसार, मनुष्य के अवचेतन मन में दबे हुए भावनात्मक संघर्ष अपराधी व्यवहार के रूप में प्रकट हो सकते हैं।
(2.)हंस आइसेन्क (Hans Eysenck): →आइसेन्क का व्यक्तित्व सिद्धांत बताता है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व उसकी जैविक और मनोवैज्ञानिक संरचना से प्रभावित होता है। उन्होंने तर्क दिया कि कुछ व्यक्तित्व लक्षण, जैसे उच्च स्तर की आवेगशीलता और कम स्तर की संवेदनशीलता, अपराधी व्यवहार से जुड़े हो सकते हैं।
उदाहरण:→
मान लीजिए कि एक व्यक्ति ने हिंसात्मक अपराध किया है। मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से इस व्यक्ति के अपराधी व्यवहार के पीछे निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:→
(1.)व्यक्तित्व विकार: → इस व्यक्ति को एंटी-सोशल पर्सनालिटी डिसऑर्डर (ASPD) हो सकता है, जिससे उसमें अपराधी प्रवृत्ति विकसित हो गई हो। ASPD वाले लोग सामाजिक मानदंडों का पालन नहीं करते और उन्हें दूसरों की भावनाओं का कोई ध्यान नहीं होता।
(2.)मनोवैज्ञानिक तनाव: → इस व्यक्ति ने अपने जीवन में अत्यधिक मानसिक दबाव और तनाव का सामना किया हो सकता है, जिससे वह आक्रामक और हिंसात्मक व्यवहार करने लगा हो।
(3.)बचपन के अनुभव: → इस व्यक्ति का बचपन कठिन परिस्थितियों में बीता हो सकता है। उसने अपने परिवार या समुदाय में हिंसा देखी हो और उसे यह व्यवहार स्वीकार्य और सामान्य लगा हो।
(4.)सीखा हुआ व्यवहार: →इस व्यक्ति ने अपने जीवन में दूसरों को हिंसात्मक व्यवहार करते हुए देखा और इसे सीखा हो सकता है। यह भी संभव है कि उसे बचपन में उचित मार्गदर्शन नहीं मिला हो।
सुधारात्मक उपाय→
मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय के अनुसार, अपराधियों को सुधारने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:→
(1.)मनोवैज्ञानिक उपचार: → अपराधियों का मानसिक स्वास्थ्य जांचा जाना चाहिए और उन्हें उचित मनोवैज्ञानिक उपचार प्रदान किया जाना चाहिए। थेरपी और काउंसलिंग के माध्यम से उनके मानसिक और भावनात्मक मुद्दों का समाधान किया जा सकता है।
(2.)व्यक्तित्व विकास: → अपराधियों के व्यक्तित्व को सुधारने के लिए विशेष कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए। इन कार्यक्रमों में उन्हें समाज के नियमों और मानदंडों का पालन करना सिखाया जाना चाहिए।
(3.)जीवन कौशल प्रशिक्षण: →अपराधियों को जीवन कौशल, जैसे तनाव प्रबंधन, संवाद कौशल, और आक्रामकता नियंत्रण, सिखाए जाने चाहिए ताकि वे समाज में समायोजित हो सकें।
(4.)समाजीकरण:→ अपराधियों को पुनः समाज में समायोजित करने के लिए सामुदायिक कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए। उन्हें सकारात्मक सामाजिक संबंध बनाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष:→
मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय अपराध के पीछे छिपे मानसिक और भावनात्मक कारणों का अध्ययन करता है। यह दृष्टिकोण बताता है कि अपराधी व्यवहार को समझने और सुधारने के लिए व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य, व्यक्तित्व, और जीवन के अनुभवों का विश्लेषण करना आवश्यक है। मनोवैज्ञानिक उपचार और जीवन कौशल प्रशिक्षण के माध्यम से अपराधियों को सुधारने और पुनर्वासित करने का प्रयास किया जा सकता है।
मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय (Psychoanalytical School):-→ अपराध शास्त्र का एक दृष्टिकोण है जो अपराधी व्यवहार को समझने के लिए अवचेतन मानसिक प्रक्रियाओं और बचपन के अनुभवों का अध्ययन करता है। इस सम्प्रदाय के प्रमुख विचारक सिगमंड फ्रायड थे। उनका मानना था कि अपराधी व्यवहार व्यक्ति के अवचेतन मन में छिपी भावनात्मक और मानसिक संघर्षों का परिणाम होता है।
प्रमुख सिद्धांत:→
(1.)अवचेतन मानसिक प्रक्रियाएं (Unconscious Mental Processes): → व्यक्ति के अवचेतन मन में दबे हुए विचार, इच्छाएं, और भावनाएं उसके व्यवहार को प्रभावित करती हैं।
(2.)मन के तीन स्तर (Three Levels of Mind):→ फ्रायड ने मन को तीन स्तरों में विभाजित किया - इड (Id), ईगो (Ego), और सुपरईगो (Superego)। इड तत्काल संतुष्टि की इच्छा रखता है, ईगो यथार्थवादी निर्णय लेता है, और सुपरईगो नैतिक मानकों का पालन करता है।
(3.)बचपन के अनुभव (Childhood Experiences): → बचपन में प्राप्त अनुभव और भावनात्मक संघर्ष व्यक्ति के व्यवहार पर स्थायी प्रभाव डालते हैं।
प्रमुख विचारक और उनके योगदान:→
(1.)सिगमंड फ्रायड (Sigmund Freud): →फ्रायड का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत बताता है कि अपराध अवचेतन मानसिक संघर्षों और बचपन के अनुभवों का परिणाम हो सकता है। उनके अनुसार, व्यक्ति के अवचेतन मन में दबे हुए भावनात्मक संघर्ष अपराधी व्यवहार के रूप में प्रकट हो सकते हैं।
(2.)अगस्ट ऐखोर्न (August Aichhorn):→ ऐखोर्न ने फ्रायड के सिद्धांतों को किशोर अपराधियों पर लागू किया और तर्क दिया कि बचपन के अनुभव और पारिवारिक वातावरण किशोरों के अपराधी व्यवहार को प्रभावित करते हैं।
उदाहरण:→
मान लीजिए कि एक व्यक्ति ने गंभीर हिंसात्मक अपराध किया है। मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से इस व्यक्ति के अपराधी व्यवहार के पीछे निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:→
(1.)अवचेतन संघर्ष:→ इस व्यक्ति के अवचेतन मन में बचपन से ही गहरे भावनात्मक संघर्ष दबे हो सकते हैं। हो सकता है कि उसने अपने बचपन में माता-पिता से पर्याप्त स्नेह और सुरक्षा न पाई हो, जिससे उसमें आक्रोश और निराशा उत्पन्न हो गई हो।
(2.)इड और सुपरईगो के संघर्ष: → इस व्यक्ति का इड तत्काल संतुष्टि की इच्छा रखता है, जबकि सुपरईगो नैतिक मानकों का पालन करता है। यदि ईगो इन दोनों के बीच संतुलन नहीं बना पाता, तो व्यक्ति अपराधी प्रवृत्ति की ओर बढ़ सकता है।
(3.)बचपन के आघात: →इस व्यक्ति ने अपने बचपन में किसी गंभीर आघात का सामना किया हो सकता है, जैसे कि शारीरिक या मानसिक शोषण। ऐसे अनुभव उसके अवचेतन मन में दब जाते हैं और बाद में अपराधी व्यवहार के रूप में प्रकट होते हैं।
सुधारात्मक उपाय:→
मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय के अनुसार, अपराधियों को सुधारने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
(1.)मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा (Psychoanalytic Therapy): → अपराधियों का मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा के माध्यम से उपचार किया जाना चाहिए ताकि उनके अवचेतन मन में छिपे भावनात्मक संघर्षों की पहचान और समाधान हो सके।
(2.)मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग (Psychological Counseling): → अपराधियों को मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग प्रदान की जानी चाहिए ताकि वे अपने बचपन के आघात और मानसिक संघर्षों से उबर सकें।
(3.)पारिवारिक समर्थन (Family Support):→ अपराधियों के पुनर्वास के लिए उनके परिवार का समर्थन महत्वपूर्ण है। पारिवारिक समर्थन और स्वस्थ पारिवारिक वातावरण उनके सुधार में सहायक हो सकता है।
(4.)जीवन कौशल प्रशिक्षण (Life Skills Training): → अपराधियों को जीवन कौशल सिखाए जाने चाहिए ताकि वे अपने मानसिक और भावनात्मक मुद्दों का सामना कर सकें और समाज में सकारात्मक रूप से योगदान दे सकें।
निष्कर्ष:→
मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय अपराध के पीछे छिपे अवचेतन मानसिक प्रक्रियाओं और बचपन के अनुभवों का अध्ययन करता है। यह दृष्टिकोण बताता है कि अपराधी व्यवहार को समझने और सुधारने के लिए व्यक्ति के अवचेतन मन में छिपे भावनात्मक संघर्षों का विश्लेषण करना आवश्यक है। मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा और मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग के माध्यम से अपराधियों को सुधारने और पुनर्वासित करने का प्रयास किया जा सकता है।
प्रस्तावना :→
अपराध शास्त्र के विभिन्न सम्प्रदाय अपराधी व्यवहार को समझने और उसे नियंत्रित करने के लिए विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। इन सम्प्रदायों का मानव जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि ये न केवल अपराधियों के सुधार में सहायक होते हैं, बल्कि समाज के सामान्य सदस्यों की सुरक्षा और कल्याण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस निबंध में हम शास्त्रीय, सकारात्मक, सामाजिक संरचना, मनोवैज्ञानिक, और मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदायों के प्रभावों, लाभों, और हानियों का विस्तृत अध्ययन करेंगे।
अपराध शास्त्र एक व्यापक और बहु-विषयक क्षेत्र है जो अपराध, अपराधियों, और न्यायिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है। इस क्षेत्र में विभिन्न सम्प्रदाय और दृष्टिकोण हैं जो अपराध के विभिन्न पहलुओं को समझने और उनका विश्लेषण करने का प्रयास करते हैं। प्रमुख सम्प्रदाय निम्नलिखित हैं:-→
1.शास्त्रीय सम्प्रदाय (Classical School):-→
शास्त्रीय सम्प्रदाय का उदय 18वीं शताब्दी में हुआ और इसके प्रमुख विचारक सेसर बेक्कारिया और जेरेमी बेंथम थे। इस सम्प्रदाय का मानना है कि अपराध एक स्वेच्छापूर्ण क्रिया है और अपराधियों को उनकी पसंद के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण के अनुसार, कानून को स्पष्ट और निष्पक्ष होना चाहिए और दंड को अपराध के अनुपात में होना चाहिए ताकि यह अपराधियों को पुनः अपराध करने से रोक सके।
(2. )सकारात्मक सम्प्रदाय (Positivist School):→
सकारात्मक सम्प्रदाय 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उभरा और इसके प्रमुख विचारक सीज़र लोम्ब्रोसो, एनरिको फेर्री, और रैफेल गारोफालो थे। इस सम्प्रदाय का मानना है कि अपराध एक सामाजिक, जैविक, और मनोवैज्ञानिक कारकों के संयोजन का परिणाम है। लोम्ब्रोसो ने अपराधियों के शारीरिक लक्षणों का अध्ययन किया और यह निष्कर्ष निकाला कि कुछ लोग जन्मजात अपराधी होते हैं। इस दृष्टिकोण के अनुसार, अपराधियों के पुनर्वास और सुधार पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
( 3.) सामाजिक संरचना सम्प्रदाय (Social Structure School):-→
यह सम्प्रदाय अपराध को सामाजिक संरचना और सामाजिक परिस्थितियों का परिणाम मानता है। सामाजिक असमानता, गरीबी, और सामाजिक अलगाव को अपराध के प्रमुख कारणों के रूप में देखा जाता है। रॉबर्ट मर्टन का अनोमी सिद्धांत और क्लिफोर्ड शॉ और हेनरी मैके का सामाजिक विघटन सिद्धांत इस सम्प्रदाय के प्रमुख सिद्धांत हैं। इस दृष्टिकोण के अनुसार, सामाजिक सुधार और नीति निर्माण के माध्यम से अपराध को कम किया जा सकता है।
( 4. )मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय (Psychological School):→
मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय अपराध को व्यक्तिगत मानसिकता और मनोवैज्ञानिक विकारों का परिणाम मानता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, अपराधी का व्यवहार उसके मानसिक स्वास्थ्य, व्यक्तित्व विकारों, और जीवन के शुरुआती अनुभवों से प्रभावित होता है। सिगमंड फ्रायड और हंस आइसेन्क जैसे मनोवैज्ञानिकों के कार्य इस सम्प्रदाय के अंतर्गत आते हैं। अपराधियों की मनोवैज्ञानिक परीक्षण और उपचार के माध्यम से सुधार पर जोर दिया जाता है।
(5.)मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय (Psychoanalytical School):→
इस सम्प्रदाय का प्रमुख योगदान सिगमंड फ्रायड ने दिया है। यह दृष्टिकोण अपराध को अवचेतन मानसिक प्रक्रियाओं और मनोवैज्ञानिक संघर्षों का परिणाम मानता है। फ्रायड के अनुसार, अवचेतन मन के विभिन्न स्तरों में दबी इच्छाएं और संघर्ष अपराधी व्यवहार के रूप में प्रकट होते हैं। मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा के माध्यम से इन अवचेतन कारकों की पहचान और उपचार पर जोर दिया जाता है।
निष्कर्ष:→
अपराध शास्त्र के विभिन्न सम्प्रदाय अपराध के कारणों और समाधानों के विभिन्न पहलुओं को प्रस्तुत करते हैं। जहां शास्त्रीय सम्प्रदाय अपराध को स्वैच्छिक क्रिया मानता है, वहीं सकारात्मक सम्प्रदाय इसे जैविक और सामाजिक कारकों का परिणाम मानता है। सामाजिक संरचना सम्प्रदाय सामाजिक असमानता को अपराध का मूल कारण मानता है, जबकि मनोवैज्ञानिक और मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय अपराध को मानसिक और मनोवैज्ञानिक कारकों से जोड़ते हैं। इन सम्प्रदायों के समन्वय से ही अपराध की व्यापक और सटीक समझ प्राप्त की जा सकती है और समाज में प्रभावी नीति निर्माण किया जा सकता है।
शास्त्रीय सम्प्रदाय अपराध शास्त्र में एक प्रमुख दृष्टिकोण है जो 18वीं शताब्दी में उभरा। इस सम्प्रदाय के प्रमुख विचारक सेसर बेक्कारिया और जेरेमी बेंथम थे। शास्त्रीय सम्प्रदाय का मुख्य सिद्धांत यह है कि मनुष्य तर्कसंगत प्राणी हैं और वे अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार होते हैं। उनके अनुसार, अपराध एक स्वेच्छापूर्ण क्रिया है और अपराधियों को उनकी पसंद के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।
सिद्धांत:→
(1.)स्वतंत्र इच्छा (Free Will): → मनुष्य तर्कसंगत प्राणी हैं जो स्वतंत्र इच्छा के आधार पर निर्णय लेते हैं।
(2.)आनंद और पीड़ा (Pleasure and Pain):→ लोग अपने कार्यों के परिणामस्वरूप आनंद और पीड़ा के संतुलन को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेते हैं।
(3.)दंड का निवारक प्रभाव (Deterrence): → दंड का उद्देश्य अपराधियों को दंडित करना नहीं, बल्कि समाज में अन्य लोगों को अपराध करने से रोकना है।
(4.)समानता (Equality): → कानून और दंड सभी व्यक्तियों के लिए समान होने चाहिए।
उदाहरण:→
मान लीजिए कि किसी शहर में चोरी की घटनाएं बढ़ रही हैं। शास्त्रीय सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से इस समस्या को हल करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:→
(1.)कानून की स्पष्टता (Clear Laws): → सरकार चोरी के खिलाफ स्पष्ट और कड़े कानून बनाएगी ताकि सभी लोग जान सकें कि चोरी करना एक गंभीर अपराध है।
(2.)दंड की निश्चितता (Certainty of Punishment): → चोरी करने पर निश्चित और अपरिहार्य दंड का प्रावधान किया जाएगा ताकि अपराधी यह जान सकें कि पकड़े जाने पर उन्हें निश्चित रूप से सजा मिलेगी।
(3.)दंड का अनुपात (Proportional Punishment): → दंड चोरी के गंभीरता के अनुरूप होगा, यानी छोटी चोरी पर कम दंड और बड़ी चोरी पर अधिक दंड होगा। इससे लोग छोटे-मोटे अपराध करने से भी बचेंगे।
(4.)दंड का त्वरित और सार्वजनिक रूप से लागू होना (Swift and Public Punishment): → दंड तुरंत और सार्वजनिक रूप से लागू किया जाएगा ताकि यह दूसरों के लिए एक उदाहरण बन सके और लोग अपराध करने से डरें।
सेसर बेक्कारिया के योगदान:→
सेसर बेक्कारिया ने अपनी पुस्तक "ऑन क्राइम्स एंड पनिशमेंट्स" (1764) में शास्त्रीय सम्प्रदाय के सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया। उन्होंने तर्क दिया कि:→
(1.) दंड का उद्देश्य अपराधियों को सुधारना और समाज में अपराध को रोकना होना चाहिए।
(2.) दंड को अपराध के अनुपात में होना चाहिए ताकि यह उचित और न्यायसंगत हो।
(3. )अत्यधिक क्रूर दंड के बजाय, निश्चित और त्वरित दंड अधिक प्रभावी होते हैं।
निष्कर्ष:→
शास्त्रीय सम्प्रदाय अपराध शास्त्र में एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण है जो तर्क, स्वतंत्र इच्छा, और दंड के निवारक प्रभाव पर जोर देता है। इसके सिद्धांत आज भी कई न्यायिक प्रणालियों का आधार हैं और समाज में अपराध को नियंत्रित करने में सहायक होते हैं।
सकारात्मक सम्प्रदाय (Positivist School):→ अपराध शास्त्र का एक प्रमुख दृष्टिकोण है जो 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उभरा। इस सम्प्रदाय का मानना है कि अपराध केवल व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा का परिणाम नहीं है, बल्कि यह जैविक, मनोवैज्ञानिक, और सामाजिक कारकों के संयोजन का परिणाम है। इस सम्प्रदाय के प्रमुख विचारक सीज़र लोम्ब्रोसो, एनरिको फेर्री, और रैफेल गारोफालो थे।
प्रमुख सिद्धांत:→
(1.)जैविक कारक (Biological Factors): →
कुछ लोग जन्म से ही अपराध की प्रवृत्ति रखते हैं। सीज़र लोम्ब्रोसो ने अपने अनुसंधान में यह निष्कर्ष निकाला कि अपराधियों के शारीरिक लक्षण सामान्य लोगों से अलग होते हैं।
(2.)मनोवैज्ञानिक कारक (Psychological Factors): → व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य, व्यक्तित्व विकार, और शुरुआती जीवन के अनुभव अपराधी व्यवहार को प्रभावित कर सकते हैं।
(3.)सामाजिक कारक (Social Factors): →
समाज की संरचना, सामाजिक असमानता, गरीबी, और अन्य सामाजिक परिस्थितियां भी अपराध को बढ़ावा देती हैं।
उदाहरण:→
मान लीजिए कि एक व्यक्ति लगातार चोरी कर रहा है। सकारात्मक सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से इस व्यक्ति के अपराधी व्यवहार के पीछे निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:
(1.)जैविक कारण: → इस व्यक्ति के परिवार में अपराधी प्रवृत्ति के लोग हो सकते हैं, जिससे यह प्रवृत्ति अनुवांशिक रूप से उसमें आ गई हो।
(2.)मनोवैज्ञानिक कारण: → इस व्यक्ति का बचपन में मानसिक या भावनात्मक शोषण हुआ हो सकता है, जिससे उसमें नकारात्मक व्यवहार विकसित हो गया हो। या फिर उसे किसी मानसिक विकार से जूझना पड़ रहा हो, जिससे वह अपनी प्रवृत्तियों को नियंत्रित नहीं कर पा रहा हो।
(3.)सामाजिक कारण: → इस व्यक्ति का पालन-पोषण एक ऐसे वातावरण में हुआ हो सकता है जहाँ गरीबी, बेरोजगारी, और शिक्षा की कमी है। ऐसी परिस्थितियाँ व्यक्ति को अपराध की ओर धकेल सकती हैं।
सीज़र लोम्ब्रोसो का योगदान:-→
सीज़र लोम्ब्रोसो ने अपराधियों के शारीरिक लक्षणों का अध्ययन किया और यह निष्कर्ष निकाला कि कुछ लोग "जन्मजात अपराधी" होते हैं। उन्होंने पाया कि अपराधियों के शारीरिक लक्षण, जैसे- बड़ा जबड़ा, उभरे हुए चीकबोन, असामान्य कान आदि, सामान्य लोगों से अलग होते हैं। हालाँकि, लोम्ब्रोसो के सिद्धांत आज पूरी तरह मान्य नहीं हैं, लेकिन उन्होंने अपराध शास्त्र में एक नई दिशा प्रदान की।
सुधारात्मक उपाय:→
सकारात्मक सम्प्रदाय के अनुसार, अपराधियों को सुधारने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:→
(1.)मनोवैज्ञानिक उपचार: → मानसिक विकारों से जूझ रहे अपराधियों का उपचार किया जाना चाहिए।
(2.)सामाजिक सुधार: → समाज में शिक्षा, रोजगार, और सामाजिक समानता को बढ़ावा देना चाहिए ताकि लोग अपराध की ओर न बढ़ें।
(3.)पुनर्वास कार्यक्रम: → अपराधियों को समाज में पुनः स्थापित करने के लिए पुनर्वास कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए।
निष्कर्ष:-→
सकारात्मक सम्प्रदाय अपराध के पीछे छिपे जैविक, मनोवैज्ञानिक, और सामाजिक कारकों का अध्ययन करता है। यह दृष्टिकोण अपराधियों को सुधारने और पुनर्वासित करने पर जोर देता है, न कि केवल उन्हें दंडित करने पर। इस सम्प्रदाय का उद्देश्य अपराध को समझना और उसके कारणों का समाधान करना है ताकि समाज में अपराध की घटनाओं को कम किया जा सके।
सामाजिक संरचना सम्प्रदाय (Social Structure School) :→ अपराध शास्त्र का एक प्रमुख दृष्टिकोण है जो समाज में अपराध की घटनाओं को समझने के लिए सामाजिक परिस्थितियों और संरचनाओं का अध्ययन करता है। इस सम्प्रदाय का मानना है कि समाज की संरचना और उसमें व्याप्त असमानता, गरीबी, और सामाजिक अलगाव अपराध को बढ़ावा देने वाले प्रमुख कारक हैं।
प्रमुख सिद्धांत:→
(1.)सामाजिक असमानता (Social Inequality): →समाज में व्याप्त आर्थिक, शैक्षिक, और सामाजिक असमानता अपराध के लिए प्रमुख जिम्मेदार होती है।
(2.)गरीबी (Poverty): → गरीबी और आर्थिक कठिनाइयों के कारण लोग अपराध करने के लिए मजबूर हो सकते हैं।
(3.)सामाजिक अलगाव (Social Disorganization): →समुदायों में सामाजिक संबंधों की कमजोरी और सामूहिक नियंत्रण की कमी अपराध की दर को बढ़ाती है।
(4.)सामाजिक तनाव (Social Strain): →रॉबर्ट मर्टन का अनोमी सिद्धांत बताता है कि जब समाज के लक्ष्य और उन्हें प्राप्त करने के साधनों के बीच असंगति होती है, तो लोग अपराध की ओर बढ़ते हैं।
प्रमुख सिद्धांतकार और उनके योगदान→
(1.)रॉबर्ट मर्टन (Robert Merton): →मर्टन का अनोमी सिद्धांत (Strain Theory) यह बताता है कि समाज में आर्थिक और सामाजिक सफलता के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जब वैध साधन उपलब्ध नहीं होते, तो लोग गैरकानूनी तरीकों से इन लक्ष्यों को प्राप्त करने की कोशिश करते हैं।
(2.)क्लिफोर्ड शॉ और हेनरी मैके (Clifford Shaw and Henry McKay): →इनका सामाजिक विघटन सिद्धांत (Social Disorganization Theory) बताता है कि शहरी क्षेत्रों में समुदायों की सामाजिक संरचना के टूटने से अपराध की दर बढ़ती है।
उदाहरण:→
मान लीजिए कि एक शहर के एक गरीब इलाके में अपराध की दर बहुत अधिक है। सामाजिक संरचना सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से इस स्थिति को निम्नलिखित कारणों से समझा जा सकता है:→
(1.)सामाजिक असमानता: → इस इलाके में रहने वाले लोग आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं। उनके पास रोजगार के पर्याप्त अवसर नहीं हैं और उनकी आय बहुत कम है। आर्थिक असमानता अपराध को बढ़ावा देती है क्योंकि लोग अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए अपराध की ओर मुड़ सकते हैं।
(2.)गरीबी:→ इस इलाके में गरीबी की दर बहुत अधिक है। लोग अपने परिवार की बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए चोरी, डकैती, और अन्य अपराध कर सकते हैं।
(3.)सामाजिक अलगाव: →इस इलाके में समुदायों के बीच आपसी संबंध कमजोर हैं। लोग एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते और सामूहिक नियंत्रण की कमी है। इससे अपराधियों को अपराध करने के लिए अनुकूल वातावरण मिलता है।
(4.)सामाजिक तनाव: → मर्टन के अनोमी सिद्धांत के अनुसार, इस इलाके के लोग भी समाज में आर्थिक और सामाजिक सफलता प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन उनके पास वैध साधनों की कमी है। इसलिए, वे गैरकानूनी तरीकों का सहारा लेते हैं।
सुधारात्मक उपाय:→
सामाजिक संरचना सम्प्रदाय के अनुसार, अपराध को कम करने के लिए निम्नलिखित सुधारात्मक उपाय किए जा सकते हैं:→
(1.)आर्थिक सुधार: → गरीब और पिछड़े इलाकों में रोजगार के अवसर बढ़ाए जाने चाहिए और लोगों की आय बढ़ाने के उपाय किए जाने चाहिए।
(2.)शैक्षिक सुधार: → शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार किया जाना चाहिए और सभी लोगों को उच्च शिक्षा तक पहुंच सुनिश्चित की जानी चाहिए।
(3.)सामाजिक पुनर्गठन: → समुदायों के बीच आपसी संबंध और विश्वास को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। सामूहिक गतिविधियों और कार्यक्रमों के माध्यम से सामाजिक एकता को मजबूत किया जा सकता है।
(4.)नीतिगत सुधार: → सरकार को ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जो सामाजिक असमानता को कम करें और सभी लोगों को समान अवसर प्रदान करें।
निष्कर्ष:→
सामाजिक संरचना सम्प्रदाय अपराध के पीछे छिपे सामाजिक और आर्थिक कारणों को उजागर करता है। यह दृष्टिकोण बताता है कि अपराध को कम करने के लिए समाज में व्याप्त असमानता, गरीबी, और सामाजिक अलगाव को दूर करना आवश्यक है। सामाजिक सुधार और नीतिगत बदलाव के माध्यम से ही एक सुरक्षित और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना की जा सकती है।
मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय (Psychological School) : →अपराध शास्त्र का एक प्रमुख दृष्टिकोण है जो अपराधी व्यवहार को समझने के लिए व्यक्ति के मानसिकता, मानसिक स्वास्थ्य, और मनोवैज्ञानिक कारकों का अध्ययन करता है। इस सम्प्रदाय का मानना है कि अपराधी व्यवहार व्यक्ति के मानसिक और भावनात्मक पहलुओं से प्रभावित होता है।
प्रमुख सिद्धांत:→
(1.)व्यक्तित्व विकार (Personality Disorders):→ कुछ व्यक्तित्व विकार, जैसे एंटी-सोशल पर्सनालिटी डिसऑर्डर (ASPD) या साइकोपैथी, व्यक्ति को अपराधी प्रवृत्ति की ओर ले जा सकते हैं।
(2.)मनोवैज्ञानिक तनाव (Psychological Stress): → जीवन में अत्यधिक तनाव और मानसिक दबाव व्यक्ति को अपराध करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।
(3.)सीखने के सिद्धांत (Learning Theories):→ व्यक्ति का व्यवहार उसके जीवन में प्राप्त अनुभवों और शिक्षा पर निर्भर करता है। आपराधिक व्यवहार भी सीखा जा सकता है।
(4.)मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण (Psychoanalytic Perspective): → फ्रायड के अनुसार, अवचेतन मानसिक संघर्ष और बचपन के अनुभव अपराधी व्यवहार को प्रभावित कर सकते हैं।
प्रमुख सिद्धांतकार और उनके योगदान:→
(1.)सिगमंड फ्रायड (Sigmund Freud): → फ्रायड का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत बताता है कि अपराध अवचेतन मानसिक प्रक्रियाओं और बचपन के अनुभवों का परिणाम हो सकता है। उनके अनुसार, मनुष्य के अवचेतन मन में दबे हुए भावनात्मक संघर्ष अपराधी व्यवहार के रूप में प्रकट हो सकते हैं।
(2.)हंस आइसेन्क (Hans Eysenck): →आइसेन्क का व्यक्तित्व सिद्धांत बताता है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व उसकी जैविक और मनोवैज्ञानिक संरचना से प्रभावित होता है। उन्होंने तर्क दिया कि कुछ व्यक्तित्व लक्षण, जैसे उच्च स्तर की आवेगशीलता और कम स्तर की संवेदनशीलता, अपराधी व्यवहार से जुड़े हो सकते हैं।
उदाहरण:→
मान लीजिए कि एक व्यक्ति ने हिंसात्मक अपराध किया है। मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से इस व्यक्ति के अपराधी व्यवहार के पीछे निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:→
(1.)व्यक्तित्व विकार: → इस व्यक्ति को एंटी-सोशल पर्सनालिटी डिसऑर्डर (ASPD) हो सकता है, जिससे उसमें अपराधी प्रवृत्ति विकसित हो गई हो। ASPD वाले लोग सामाजिक मानदंडों का पालन नहीं करते और उन्हें दूसरों की भावनाओं का कोई ध्यान नहीं होता।
(2.)मनोवैज्ञानिक तनाव: → इस व्यक्ति ने अपने जीवन में अत्यधिक मानसिक दबाव और तनाव का सामना किया हो सकता है, जिससे वह आक्रामक और हिंसात्मक व्यवहार करने लगा हो।
(3.)बचपन के अनुभव: → इस व्यक्ति का बचपन कठिन परिस्थितियों में बीता हो सकता है। उसने अपने परिवार या समुदाय में हिंसा देखी हो और उसे यह व्यवहार स्वीकार्य और सामान्य लगा हो।
(4.)सीखा हुआ व्यवहार: →इस व्यक्ति ने अपने जीवन में दूसरों को हिंसात्मक व्यवहार करते हुए देखा और इसे सीखा हो सकता है। यह भी संभव है कि उसे बचपन में उचित मार्गदर्शन नहीं मिला हो।
सुधारात्मक उपाय→
मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय के अनुसार, अपराधियों को सुधारने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:→
(1.)मनोवैज्ञानिक उपचार: → अपराधियों का मानसिक स्वास्थ्य जांचा जाना चाहिए और उन्हें उचित मनोवैज्ञानिक उपचार प्रदान किया जाना चाहिए। थेरपी और काउंसलिंग के माध्यम से उनके मानसिक और भावनात्मक मुद्दों का समाधान किया जा सकता है।
(2.)व्यक्तित्व विकास: → अपराधियों के व्यक्तित्व को सुधारने के लिए विशेष कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए। इन कार्यक्रमों में उन्हें समाज के नियमों और मानदंडों का पालन करना सिखाया जाना चाहिए।
(3.)जीवन कौशल प्रशिक्षण: →अपराधियों को जीवन कौशल, जैसे तनाव प्रबंधन, संवाद कौशल, और आक्रामकता नियंत्रण, सिखाए जाने चाहिए ताकि वे समाज में समायोजित हो सकें।
(4.)समाजीकरण:→ अपराधियों को पुनः समाज में समायोजित करने के लिए सामुदायिक कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए। उन्हें सकारात्मक सामाजिक संबंध बनाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष:→
मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय अपराध के पीछे छिपे मानसिक और भावनात्मक कारणों का अध्ययन करता है। यह दृष्टिकोण बताता है कि अपराधी व्यवहार को समझने और सुधारने के लिए व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य, व्यक्तित्व, और जीवन के अनुभवों का विश्लेषण करना आवश्यक है। मनोवैज्ञानिक उपचार और जीवन कौशल प्रशिक्षण के माध्यम से अपराधियों को सुधारने और पुनर्वासित करने का प्रयास किया जा सकता है।
मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय (Psychoanalytical School):-→ अपराध शास्त्र का एक दृष्टिकोण है जो अपराधी व्यवहार को समझने के लिए अवचेतन मानसिक प्रक्रियाओं और बचपन के अनुभवों का अध्ययन करता है। इस सम्प्रदाय के प्रमुख विचारक सिगमंड फ्रायड थे। उनका मानना था कि अपराधी व्यवहार व्यक्ति के अवचेतन मन में छिपी भावनात्मक और मानसिक संघर्षों का परिणाम होता है।
प्रमुख सिद्धांत:→
(1.)अवचेतन मानसिक प्रक्रियाएं (Unconscious Mental Processes): → व्यक्ति के अवचेतन मन में दबे हुए विचार, इच्छाएं, और भावनाएं उसके व्यवहार को प्रभावित करती हैं।
(2.)मन के तीन स्तर (Three Levels of Mind):→ फ्रायड ने मन को तीन स्तरों में विभाजित किया - इड (Id), ईगो (Ego), और सुपरईगो (Superego)। इड तत्काल संतुष्टि की इच्छा रखता है, ईगो यथार्थवादी निर्णय लेता है, और सुपरईगो नैतिक मानकों का पालन करता है।
(3.)बचपन के अनुभव (Childhood Experiences): → बचपन में प्राप्त अनुभव और भावनात्मक संघर्ष व्यक्ति के व्यवहार पर स्थायी प्रभाव डालते हैं।
प्रमुख विचारक और उनके योगदान:→
(1.)सिगमंड फ्रायड (Sigmund Freud): →फ्रायड का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत बताता है कि अपराध अवचेतन मानसिक संघर्षों और बचपन के अनुभवों का परिणाम हो सकता है। उनके अनुसार, व्यक्ति के अवचेतन मन में दबे हुए भावनात्मक संघर्ष अपराधी व्यवहार के रूप में प्रकट हो सकते हैं।
(2.)अगस्ट ऐखोर्न (August Aichhorn):→ ऐखोर्न ने फ्रायड के सिद्धांतों को किशोर अपराधियों पर लागू किया और तर्क दिया कि बचपन के अनुभव और पारिवारिक वातावरण किशोरों के अपराधी व्यवहार को प्रभावित करते हैं।
उदाहरण:→
मान लीजिए कि एक व्यक्ति ने गंभीर हिंसात्मक अपराध किया है। मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से इस व्यक्ति के अपराधी व्यवहार के पीछे निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:→
(1.)अवचेतन संघर्ष:→ इस व्यक्ति के अवचेतन मन में बचपन से ही गहरे भावनात्मक संघर्ष दबे हो सकते हैं। हो सकता है कि उसने अपने बचपन में माता-पिता से पर्याप्त स्नेह और सुरक्षा न पाई हो, जिससे उसमें आक्रोश और निराशा उत्पन्न हो गई हो।
(2.)इड और सुपरईगो के संघर्ष: → इस व्यक्ति का इड तत्काल संतुष्टि की इच्छा रखता है, जबकि सुपरईगो नैतिक मानकों का पालन करता है। यदि ईगो इन दोनों के बीच संतुलन नहीं बना पाता, तो व्यक्ति अपराधी प्रवृत्ति की ओर बढ़ सकता है।
(3.)बचपन के आघात: →इस व्यक्ति ने अपने बचपन में किसी गंभीर आघात का सामना किया हो सकता है, जैसे कि शारीरिक या मानसिक शोषण। ऐसे अनुभव उसके अवचेतन मन में दब जाते हैं और बाद में अपराधी व्यवहार के रूप में प्रकट होते हैं।
सुधारात्मक उपाय:→
मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय के अनुसार, अपराधियों को सुधारने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
(1.)मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा (Psychoanalytic Therapy): → अपराधियों का मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा के माध्यम से उपचार किया जाना चाहिए ताकि उनके अवचेतन मन में छिपे भावनात्मक संघर्षों की पहचान और समाधान हो सके।
(2.)मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग (Psychological Counseling): → अपराधियों को मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग प्रदान की जानी चाहिए ताकि वे अपने बचपन के आघात और मानसिक संघर्षों से उबर सकें।
(3.)पारिवारिक समर्थन (Family Support):→ अपराधियों के पुनर्वास के लिए उनके परिवार का समर्थन महत्वपूर्ण है। पारिवारिक समर्थन और स्वस्थ पारिवारिक वातावरण उनके सुधार में सहायक हो सकता है।
(4.)जीवन कौशल प्रशिक्षण (Life Skills Training): → अपराधियों को जीवन कौशल सिखाए जाने चाहिए ताकि वे अपने मानसिक और भावनात्मक मुद्दों का सामना कर सकें और समाज में सकारात्मक रूप से योगदान दे सकें।
निष्कर्ष:→
मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय अपराध के पीछे छिपे अवचेतन मानसिक प्रक्रियाओं और बचपन के अनुभवों का अध्ययन करता है। यह दृष्टिकोण बताता है कि अपराधी व्यवहार को समझने और सुधारने के लिए व्यक्ति के अवचेतन मन में छिपे भावनात्मक संघर्षों का विश्लेषण करना आवश्यक है। मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा और मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग के माध्यम से अपराधियों को सुधारने और पुनर्वासित करने का प्रयास किया जा सकता है।
प्रस्तावना :→
अपराध शास्त्र के विभिन्न सम्प्रदाय अपराधी व्यवहार को समझने और उसे नियंत्रित करने के लिए विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। इन सम्प्रदायों का मानव जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि ये न केवल अपराधियों के सुधार में सहायक होते हैं, बल्कि समाज के सामान्य सदस्यों की सुरक्षा और कल्याण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस निबंध में हम शास्त्रीय, सकारात्मक, सामाजिक संरचना, मनोवैज्ञानिक, और मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदायों के प्रभावों, लाभों, और हानियों का विस्तृत अध्ययन करेंगे।
शास्त्रीय सम्प्रदाय :→
प्रभाव: → शास्त्रीय सम्प्रदाय का मानना है कि अपराध स्वतंत्र इच्छा का परिणाम होता है और दंड के माध्यम से अपराधियों को नियंत्रित किया जा सकता है।
लाभ:→
(1.)न्याय प्रणाली में सुधार: → शास्त्रीय सम्प्रदाय के सिद्धांतों के आधार पर कानून और दंड व्यवस्था को स्पष्ट और संतुलित बनाया गया है।
(2.)निवारक प्रभाव: → कठोर और निश्चित दंड अपराधियों को अपराध करने से रोकने में सहायक होता है।
हानि:→
(1.)सभी अपराधियों के लिए समान दंड: → इस सम्प्रदाय में सभी अपराधियों के लिए समान दंड की व्यवस्था होती है, जिससे व्यक्तिगत परिस्थितियों की अनदेखी हो सकती है।
(2.)अपराधियों का सुधार: → केवल दंड पर जोर देने से अपराधियों के सुधार की संभावनाएं कम हो जाती हैं।
उदाहरण: →अगर किसी व्यक्ति ने चोरी की है, तो उसे कठोर दंड देकर अन्य लोगों को भी चेतावनी दी जाती है कि चोरी करना गंभीर अपराध है।
सकारात्मक सम्प्रदाय:→
प्रभाव:→ सकारात्मक सम्प्रदाय का मानना है कि अपराध जैविक, मनोवैज्ञानिक, और सामाजिक कारकों का परिणाम होता है।
लाभ:→
(1.)व्यक्तिगत उपचार: →अपराधियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का परीक्षण कर उन्हें उचित उपचार प्रदान किया जा सकता है।
(2.)समाज में सुधार: → सामाजिक और आर्थिक सुधारों के माध्यम से अपराध की दर को कम किया जा सकता है।
हानि:→
(1.)जटिलता: → अपराध के कारणों का विश्लेषण करना और सुधारात्मक उपाय लागू करना जटिल और समय-साध्य हो सकता है।
(2.)व्यक्तिगत जिम्मेदारी की कमी:→ इस सम्प्रदाय में अपराधी को केवल परिस्थितियों का शिकार मानने से व्यक्तिगत जिम्मेदारी की अनदेखी हो सकती है।
उदाहरण: → यदि किसी व्यक्ति ने हिंसात्मक अपराध किया है, तो उसके मानसिक स्वास्थ्य का परीक्षण कर उसे मनोवैज्ञानिक उपचार प्रदान किया जा सकता है।
सामाजिक संरचना सम्प्रदाय:→
प्रभाव: → सामाजिक संरचना सम्प्रदाय का मानना है कि समाज की संरचना और असमानता अपराध को बढ़ावा देती है।
लाभ:→
(1.)समाज में सुधार: → सामाजिक और आर्थिक असमानता को कम करके अपराध की दर को नियंत्रित किया जा सकता है।
(2.)सामाजिक एकता: →सामुदायिक संबंधों को मजबूत करके समाज में अपराध को कम किया जा सकता है।
हानि:→
(1.)व्यक्तिगत अपराधियों की अनदेखी:→ सामाजिक संरचना पर जोर देने से व्यक्तिगत अपराधियों के मानसिक और भावनात्मक पहलुओं की अनदेखी हो सकती है।
(2.)नीतिगत बदलाव की चुनौती:→ समाज में सुधार लाने के लिए व्यापक नीतिगत बदलावों की आवश्यकता होती है, जो कठिन हो सकते हैं।
उदाहरण: → यदि किसी गरीब इलाके में अपराध की दर अधिक है, तो उस इलाके में रोजगार के अवसर बढ़ाकर और शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करके अपराध को कम किया जा सकता है।
मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय:→
प्रभाव: →मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय का मानना है कि अपराध व्यक्ति के मानसिकता और मनोवैज्ञानिक कारकों का परिणाम होता है।
लाभ:→
(1.)व्यक्तिगत सुधार: → मनोवैज्ञानिक उपचार और काउंसलिंग के माध्यम से अपराधियों का सुधार संभव है।
(2.)अपराध के कारणों की समझ: → अपराध के पीछे छिपे मानसिक और भावनात्मक कारणों को समझा जा सकता है।
हानि:→
(1.)समय-साध्य उपचार:→ मनोवैज्ञानिक उपचार और काउंसलिंग में समय और संसाधन की आवश्यकता होती है।
(2.)सभी अपराधियों पर लागू नहीं:→ यह दृष्टिकोण सभी प्रकार के अपराधियों पर समान रूप से लागू नहीं हो सकता।
उदाहरण: → यदि किसी व्यक्ति ने आक्रामकता के कारण अपराध किया है, तो उसे थेरपी और काउंसलिंग प्रदान करके उसके आक्रामक व्यवहार को नियंत्रित किया जा सकता है।
मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय:→
प्रभाव: →मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय का मानना है कि अपराध अवचेतन मानसिक संघर्षों और बचपन के अनुभवों का परिणाम होता है।
लाभ:→
(1.)गहरे मानसिक संघर्षों का समाधान:→ मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा के माध्यम से अपराधियों के गहरे मानसिक संघर्षों का समाधान किया जा सकता है।
(2.)व्यवहार में सुधार: → बचपन के अनुभवों और अवचेतन मन के विश्लेषण से व्यक्ति के व्यवहार में सुधार संभव है।
हानि:→
(1.)जटिल और समय-साध्य: → मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा जटिल और समय-साध्य हो सकती है।
(2.)सभी अपराधियों पर लागू नहीं: →यह दृष्टिकोण सभी प्रकार के अपराधियों पर समान रूप से लागू नहीं हो सकता।
उदाहरण: →यदि किसी व्यक्ति ने गंभीर हिंसात्मक अपराध किया है, तो उसके बचपन के अनुभवों और अवचेतन मानसिक संघर्षों का विश्लेषण कर उसे मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा प्रदान की जा सकती है।
निष्कर्ष:→
अपराध शास्त्र के विभिन्न सम्प्रदाय अपराधी व्यवहार को समझने और नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। शास्त्रीय सम्प्रदाय दंड के निवारक प्रभाव पर जोर देता है, जबकि सकारात्मक सम्प्रदाय जैविक, मनोवैज्ञानिक, और सामाजिक कारकों का अध्ययन करता है। सामाजिक संरचना सम्प्रदाय समाज की संरचना और असमानता को अपराध के प्रमुख कारण मानता है, जबकि मनोवैज्ञानिक और मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय व्यक्ति के मानसिक और भावनात्मक पहलुओं पर जोर देते हैं। इन सभी सम्प्रदायों का मानव जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है, और अपराध को समझने और नियंत्रित करने के लिए इनका संयुक्त दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है।
18 वीं शताब्दी के मध्य में विलियम ब्लैकस्टोन, बॅथम, सैम्युअल रोमिले, रॉबर्टपील, फ्यूरबेच इत्यादि विधि सुधारकों ने अपराधशास्त्र की क्लासिकल सम्प्रदाय का शुभारम्भ अर्थात् सूत्रपात किया, लेकिन इसके प्रमुख प्रणेता सिसेर बकारिया थे जिन्होंने अपराधशास्त्र सम्बन्धी प्राकृतिकवादी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। आपराधिकता का मूल कारण मानव की स्वयं की इच्छा ही है।
डोनाल्ड टेफ्ट ने बकारिया के आपराधिकता सम्बन्धी 'स्वतन्त्र इच्छा' सिद्धान्त (Free will theory) की व्याख्या करते हुए कहा है कि "प्रत्येक व्यक्ति की सुख और दुःख की कल्पना अलग-अलग होती है तथा मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रकृति होती है कि यह सुखों का अधिकाधिक उपभोग करना चाहता है और दुःख को टालना चाहता है। सुख की प्राप्ति की चाह में ही वह यदाकदा अपराध कर बैठता है।" इस प्रकार बकारिया द्वारा प्रतिपादित अपराधों सम्बन्धी 'स्वतन्त्र इच्छा' का सिद्धान्त मूलतः बेन्थम के उपयोगितावाद पर आधारित था जिसमें 'सुख की चाह' तथा 'दुःख की अनिच्छा' पर बल दिया गया था। मानव-इच्छा को आपराधिकता का मूल कारण निरूपित करते हुए बकारिया ने क्लासिकल विचारधारा की आधारशिला रखी जिसके मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं-
(a) राज्य के कठिन निर्बंधनों से छुटकारा पाने में व्यक्ति की तर्कबुद्धि का सक्रिय योगदान रहा है। यह सिद्धान्त इस मूलभूत धारणा पर आधारित है कि व्यक्ति अपनी इच्छा-शक्ति और मानसिक दृढ़ता से स्वयं के आचरण को नियन्त्रित रख सकता है क्योंकि मानव-आचरण स्वयं-संयन्त्रित एवं स्वयं-निर्धारित होता है। दण्ड का भय व्यक्ति को अपराध करने से परावृत्त रहने हेतु, स्वयं की अवांछित इच्छा को वश में रखने हेतु बाध्य करता है।
(b) व्यक्ति की आपराधिकता के निर्धारण के लिए उसके अपराध कृत्य को न कि उसके आशय को महत्व दिया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में अपराधशास्त्रियों का केन्द्र बिन्दु अपराधी का कृत्य होना चाहिए न कि उस कृत्य को करने के पीछे उसका आशय। इसके अतिरिक्त उस समय अपराध के अन्य कारणों के विषय में सोचने का प्रश्न ही नहीं उठता था।
(c) अपराधी के मन में दुःख, अपमान या लाँछन का भय उसे अपराध करने से रोकने में सहायक होता है।
क्लासिकल विचारधारा के समर्थकों ने अपराधी को दंडित किये जाने के बजाय अपराधों की रोकथाम पर अधिक महत्व दिया। इसलिए उन्होंने विभिन्न यूरोपी देशों के लिए दण्ड संहिता की आवश्यकता प्रतिपादित की ताकि सभी जगह एक सुव्यवस्थित आपराधिक न्याय पद्धति लागू की जा सके। इसी के परिणामस्वरूप आगे चलकर सन् 1791 में फ्रांस की दण्ड संहिता तैयार की गई तथा जर्मनी और इटली ने भी अपनी दण्ड संहिता को लागू किया। इसलिए इसमें सन्देह नहीं कि क्लासिकल विचारधारा का सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह रहा है कि इसके प्रवर्तकों ने एक सुपरिभाषित आपराधिक न्याय प्रणाली के अस्तित्व की आवश्यकता को रेखांकित किया।
बकारिया ने अपनी सुविख्यात कृति' क्राइम्स एण्ड पनिशमेंट' में दण्ड का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति को पूर्णतः नकारते हुए अभिकथन किया कि दण्ड का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति की आपराधिकता से परावृत्त रखने तथा अपराधी को यथासम्भव कम शारीरिक यातना दिये जाने की ओर लक्षित होना चाहिए।
(d) मानव स्वभाव से ही स्वार्थपरायण होने के कारण उस पर किसी अन्य बाह्य संस्था का नियंत्रण होना अत्यन्त आवश्यक है। यही कारण है कि इस विचारधारा के समर्थकों ने अपराधियों को दण्डित करने के राज्य के अधिकार को जनहित में उचित माना। उन्होंने यह सिद्धान्त भी प्रतिपादित किया कि दण्ड की मात्रा, अपराध की गंभीरता और स्वरूप के अनुसार निर्धारित की जानी चाहिए। अपराधों की गंभीरता की दृष्टि से बकारिया ने अपराधों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया-
(i) राज्य के विरुद्ध अपराध; जैसे- राजद्रोह, सैन्य विद्रोह आदि।
(ii) शारीरिक सुरक्षा या सम्पत्ति की सुरक्षा के विरुद्ध अपराध; जैसे- हमला, चोट, चोरी डकैती, अपहरण, बलात्कार, रिष्टि आदि।
(iii) सामाजिक शान्ति भग करने सम्बन्धी अपराध; जैसे- दंगा, बलवा, मारपीट, अफवाहें फैलाना आदि।
(e) क्लासिकल विचारधारा के प्रवर्तकों का मानना था कि आपराधिक विधि का प्राथमिक आधार दण्ड का भय है। इसलिए वे न्याय निर्णय में दण्डाधिकारी को न्यायिक विवेक दिये जाने के पक्षधर नहीं थे। उनके विचार से दण्ड निर्धारित करते समय न्यायाधीशों को दण्ड विधि की सीमाओं में रहना चाहिए तथा उससे हटकर दण्ड नहीं देना चाहिए। इस विचारधारा के अनुसार यातनात्मक दण्ड भी भर्त्सना किये जाने योग्य था।
(f) क्लासिकल विचारधारा की धारणा थी कि दण्ड की प्रभावकारिता इस बात पर निर्भर करती है कि अपराध से अपराधी को प्राप्त होने वाला संभावित फायदा, सुख की सन्तुष्टि, अपराध के लिए देय दण्ड से होने वाली यातना, कष्ट, असुविधा, क्लेश आदि की तुलना में कम होना चाहिए ताकि अपराधी सम्भावित दण्ड के भय से अपराधकृत्य करने की ओर प्रवृत्त न हो।
ज्ञातव्य है कि विख्यात इंग्लिश विधि सुधारक जर्मी बेंथम ने भी दण्ड की प्रभावोत्पादकता के विषय में इसी सिद्धान्त को सर्वाधिक महत्व दिया है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि क्लासिकल विचारधारा के अपराधशास्त्रियों ने सर्वप्रथम आपराधिक न्याय प्रशासन के लिए कुछ आदर्शात्मक सिद्धान्त सुझाए। निश्चित ही यह अपराधशास्त्र के क्रमबद्ध तथा तर्कसंगत अध्ययन का सराहनीय प्रयास था जिसने आगे चलकर इसे वैज्ञानिक आधार प्रदान किया और एक स्वतंत्र ज्ञान की शाखा के रूप में विकसित किया। तथापि इस दिशा में यह प्रथम प्रयास होने के कारण इसमें कुछ कमियाँ रह जाना स्वाभाविक ही था। क्लासिकल शाखा का सबसे गंभीर दोष यह था कि इसमें अपराधी की 'स्वतन्त्र इच्छा' और उसके अपराध कृत्य को अनावश्यक महत्व दिया गया था तथा उसकी मानसिक स्थिति पर कोई ध्यान नहीं गया था। इस विचारधारा का दूसरा प्रमुख दोष यह था कि इसके समर्थकों ने दण्ड की दृष्टि से प्रथमतः अपराध करने वाले व्यक्ति तथा घोर अपराधियों में कोई विभेद नहीं किया तथा समान अपराध करने वाले सभी अपराधियों को समान दण्ड दिये जाने का समर्थन किया। वस्तुतः यह उनकी महान भूल थी क्योंकि दण्ड निर्धारित करते समय अपराधी की मानसिक स्थिति तथा उसकी वैयक्तिक परिस्थितियों पर ध्यान दिया जाना अत्यन्त आवश्यक है। इन दोषों के होते हुए भी क्लासिकल विचारधारा का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि उसने एक ऐसी सरल और सुगम आपराधिक नीति की आवश्यकता प्रतिपादित की जिसका क्रियान्वयन निश्चित सिद्धान्तों के आधार पर किया जा सके और मनमाने दण्ड निर्धारण पर रोक लगाई जा सके। इसके समर्थकों ने धार्मिक मान्यताओं पर आधारित अपराध और आपराधिकता सम्बन्धी धारणाओं को निराधार साबित करते हुए अपराधी के व्यक्तित्व को महत्व दिये जाने पर बल दिया।
प्रभाव: → शास्त्रीय सम्प्रदाय का मानना है कि अपराध स्वतंत्र इच्छा का परिणाम होता है और दंड के माध्यम से अपराधियों को नियंत्रित किया जा सकता है।
लाभ:→
(1.)न्याय प्रणाली में सुधार: → शास्त्रीय सम्प्रदाय के सिद्धांतों के आधार पर कानून और दंड व्यवस्था को स्पष्ट और संतुलित बनाया गया है।
(2.)निवारक प्रभाव: → कठोर और निश्चित दंड अपराधियों को अपराध करने से रोकने में सहायक होता है।
हानि:→
(1.)सभी अपराधियों के लिए समान दंड: → इस सम्प्रदाय में सभी अपराधियों के लिए समान दंड की व्यवस्था होती है, जिससे व्यक्तिगत परिस्थितियों की अनदेखी हो सकती है।
(2.)अपराधियों का सुधार: → केवल दंड पर जोर देने से अपराधियों के सुधार की संभावनाएं कम हो जाती हैं।
उदाहरण: →अगर किसी व्यक्ति ने चोरी की है, तो उसे कठोर दंड देकर अन्य लोगों को भी चेतावनी दी जाती है कि चोरी करना गंभीर अपराध है।
सकारात्मक सम्प्रदाय:→
प्रभाव:→ सकारात्मक सम्प्रदाय का मानना है कि अपराध जैविक, मनोवैज्ञानिक, और सामाजिक कारकों का परिणाम होता है।
लाभ:→
(1.)व्यक्तिगत उपचार: →अपराधियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का परीक्षण कर उन्हें उचित उपचार प्रदान किया जा सकता है।
(2.)समाज में सुधार: → सामाजिक और आर्थिक सुधारों के माध्यम से अपराध की दर को कम किया जा सकता है।
हानि:→
(1.)जटिलता: → अपराध के कारणों का विश्लेषण करना और सुधारात्मक उपाय लागू करना जटिल और समय-साध्य हो सकता है।
(2.)व्यक्तिगत जिम्मेदारी की कमी:→ इस सम्प्रदाय में अपराधी को केवल परिस्थितियों का शिकार मानने से व्यक्तिगत जिम्मेदारी की अनदेखी हो सकती है।
उदाहरण: → यदि किसी व्यक्ति ने हिंसात्मक अपराध किया है, तो उसके मानसिक स्वास्थ्य का परीक्षण कर उसे मनोवैज्ञानिक उपचार प्रदान किया जा सकता है।
सामाजिक संरचना सम्प्रदाय:→
प्रभाव: → सामाजिक संरचना सम्प्रदाय का मानना है कि समाज की संरचना और असमानता अपराध को बढ़ावा देती है।
लाभ:→
(1.)समाज में सुधार: → सामाजिक और आर्थिक असमानता को कम करके अपराध की दर को नियंत्रित किया जा सकता है।
(2.)सामाजिक एकता: →सामुदायिक संबंधों को मजबूत करके समाज में अपराध को कम किया जा सकता है।
हानि:→
(1.)व्यक्तिगत अपराधियों की अनदेखी:→ सामाजिक संरचना पर जोर देने से व्यक्तिगत अपराधियों के मानसिक और भावनात्मक पहलुओं की अनदेखी हो सकती है।
(2.)नीतिगत बदलाव की चुनौती:→ समाज में सुधार लाने के लिए व्यापक नीतिगत बदलावों की आवश्यकता होती है, जो कठिन हो सकते हैं।
उदाहरण: → यदि किसी गरीब इलाके में अपराध की दर अधिक है, तो उस इलाके में रोजगार के अवसर बढ़ाकर और शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करके अपराध को कम किया जा सकता है।
मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय:→
प्रभाव: →मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय का मानना है कि अपराध व्यक्ति के मानसिकता और मनोवैज्ञानिक कारकों का परिणाम होता है।
लाभ:→
(1.)व्यक्तिगत सुधार: → मनोवैज्ञानिक उपचार और काउंसलिंग के माध्यम से अपराधियों का सुधार संभव है।
(2.)अपराध के कारणों की समझ: → अपराध के पीछे छिपे मानसिक और भावनात्मक कारणों को समझा जा सकता है।
हानि:→
(1.)समय-साध्य उपचार:→ मनोवैज्ञानिक उपचार और काउंसलिंग में समय और संसाधन की आवश्यकता होती है।
(2.)सभी अपराधियों पर लागू नहीं:→ यह दृष्टिकोण सभी प्रकार के अपराधियों पर समान रूप से लागू नहीं हो सकता।
उदाहरण: → यदि किसी व्यक्ति ने आक्रामकता के कारण अपराध किया है, तो उसे थेरपी और काउंसलिंग प्रदान करके उसके आक्रामक व्यवहार को नियंत्रित किया जा सकता है।
मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय:→
प्रभाव: →मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय का मानना है कि अपराध अवचेतन मानसिक संघर्षों और बचपन के अनुभवों का परिणाम होता है।
लाभ:→
(1.)गहरे मानसिक संघर्षों का समाधान:→ मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा के माध्यम से अपराधियों के गहरे मानसिक संघर्षों का समाधान किया जा सकता है।
(2.)व्यवहार में सुधार: → बचपन के अनुभवों और अवचेतन मन के विश्लेषण से व्यक्ति के व्यवहार में सुधार संभव है।
हानि:→
(1.)जटिल और समय-साध्य: → मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा जटिल और समय-साध्य हो सकती है।
(2.)सभी अपराधियों पर लागू नहीं: →यह दृष्टिकोण सभी प्रकार के अपराधियों पर समान रूप से लागू नहीं हो सकता।
उदाहरण: →यदि किसी व्यक्ति ने गंभीर हिंसात्मक अपराध किया है, तो उसके बचपन के अनुभवों और अवचेतन मानसिक संघर्षों का विश्लेषण कर उसे मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा प्रदान की जा सकती है।
निष्कर्ष:→
अपराध शास्त्र के विभिन्न सम्प्रदाय अपराधी व्यवहार को समझने और नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। शास्त्रीय सम्प्रदाय दंड के निवारक प्रभाव पर जोर देता है, जबकि सकारात्मक सम्प्रदाय जैविक, मनोवैज्ञानिक, और सामाजिक कारकों का अध्ययन करता है। सामाजिक संरचना सम्प्रदाय समाज की संरचना और असमानता को अपराध के प्रमुख कारण मानता है, जबकि मनोवैज्ञानिक और मनोविश्लेषणात्मक सम्प्रदाय व्यक्ति के मानसिक और भावनात्मक पहलुओं पर जोर देते हैं। इन सभी सम्प्रदायों का मानव जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है, और अपराध को समझने और नियंत्रित करने के लिए इनका संयुक्त दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है।
18 वीं शताब्दी के मध्य में विलियम ब्लैकस्टोन, बॅथम, सैम्युअल रोमिले, रॉबर्टपील, फ्यूरबेच इत्यादि विधि सुधारकों ने अपराधशास्त्र की क्लासिकल सम्प्रदाय का शुभारम्भ अर्थात् सूत्रपात किया, लेकिन इसके प्रमुख प्रणेता सिसेर बकारिया थे जिन्होंने अपराधशास्त्र सम्बन्धी प्राकृतिकवादी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। आपराधिकता का मूल कारण मानव की स्वयं की इच्छा ही है।
डोनाल्ड टेफ्ट ने बकारिया के आपराधिकता सम्बन्धी 'स्वतन्त्र इच्छा' सिद्धान्त (Free will theory) की व्याख्या करते हुए कहा है कि "प्रत्येक व्यक्ति की सुख और दुःख की कल्पना अलग-अलग होती है तथा मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रकृति होती है कि यह सुखों का अधिकाधिक उपभोग करना चाहता है और दुःख को टालना चाहता है। सुख की प्राप्ति की चाह में ही वह यदाकदा अपराध कर बैठता है।" इस प्रकार बकारिया द्वारा प्रतिपादित अपराधों सम्बन्धी 'स्वतन्त्र इच्छा' का सिद्धान्त मूलतः बेन्थम के उपयोगितावाद पर आधारित था जिसमें 'सुख की चाह' तथा 'दुःख की अनिच्छा' पर बल दिया गया था। मानव-इच्छा को आपराधिकता का मूल कारण निरूपित करते हुए बकारिया ने क्लासिकल विचारधारा की आधारशिला रखी जिसके मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं-
(a) राज्य के कठिन निर्बंधनों से छुटकारा पाने में व्यक्ति की तर्कबुद्धि का सक्रिय योगदान रहा है। यह सिद्धान्त इस मूलभूत धारणा पर आधारित है कि व्यक्ति अपनी इच्छा-शक्ति और मानसिक दृढ़ता से स्वयं के आचरण को नियन्त्रित रख सकता है क्योंकि मानव-आचरण स्वयं-संयन्त्रित एवं स्वयं-निर्धारित होता है। दण्ड का भय व्यक्ति को अपराध करने से परावृत्त रहने हेतु, स्वयं की अवांछित इच्छा को वश में रखने हेतु बाध्य करता है।
(b) व्यक्ति की आपराधिकता के निर्धारण के लिए उसके अपराध कृत्य को न कि उसके आशय को महत्व दिया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में अपराधशास्त्रियों का केन्द्र बिन्दु अपराधी का कृत्य होना चाहिए न कि उस कृत्य को करने के पीछे उसका आशय। इसके अतिरिक्त उस समय अपराध के अन्य कारणों के विषय में सोचने का प्रश्न ही नहीं उठता था।
(c) अपराधी के मन में दुःख, अपमान या लाँछन का भय उसे अपराध करने से रोकने में सहायक होता है।
क्लासिकल विचारधारा के समर्थकों ने अपराधी को दंडित किये जाने के बजाय अपराधों की रोकथाम पर अधिक महत्व दिया। इसलिए उन्होंने विभिन्न यूरोपी देशों के लिए दण्ड संहिता की आवश्यकता प्रतिपादित की ताकि सभी जगह एक सुव्यवस्थित आपराधिक न्याय पद्धति लागू की जा सके। इसी के परिणामस्वरूप आगे चलकर सन् 1791 में फ्रांस की दण्ड संहिता तैयार की गई तथा जर्मनी और इटली ने भी अपनी दण्ड संहिता को लागू किया। इसलिए इसमें सन्देह नहीं कि क्लासिकल विचारधारा का सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह रहा है कि इसके प्रवर्तकों ने एक सुपरिभाषित आपराधिक न्याय प्रणाली के अस्तित्व की आवश्यकता को रेखांकित किया।
बकारिया ने अपनी सुविख्यात कृति' क्राइम्स एण्ड पनिशमेंट' में दण्ड का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति को पूर्णतः नकारते हुए अभिकथन किया कि दण्ड का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति की आपराधिकता से परावृत्त रखने तथा अपराधी को यथासम्भव कम शारीरिक यातना दिये जाने की ओर लक्षित होना चाहिए।
(d) मानव स्वभाव से ही स्वार्थपरायण होने के कारण उस पर किसी अन्य बाह्य संस्था का नियंत्रण होना अत्यन्त आवश्यक है। यही कारण है कि इस विचारधारा के समर्थकों ने अपराधियों को दण्डित करने के राज्य के अधिकार को जनहित में उचित माना। उन्होंने यह सिद्धान्त भी प्रतिपादित किया कि दण्ड की मात्रा, अपराध की गंभीरता और स्वरूप के अनुसार निर्धारित की जानी चाहिए। अपराधों की गंभीरता की दृष्टि से बकारिया ने अपराधों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया-
(i) राज्य के विरुद्ध अपराध; जैसे- राजद्रोह, सैन्य विद्रोह आदि।
(ii) शारीरिक सुरक्षा या सम्पत्ति की सुरक्षा के विरुद्ध अपराध; जैसे- हमला, चोट, चोरी डकैती, अपहरण, बलात्कार, रिष्टि आदि।
(iii) सामाजिक शान्ति भग करने सम्बन्धी अपराध; जैसे- दंगा, बलवा, मारपीट, अफवाहें फैलाना आदि।
(e) क्लासिकल विचारधारा के प्रवर्तकों का मानना था कि आपराधिक विधि का प्राथमिक आधार दण्ड का भय है। इसलिए वे न्याय निर्णय में दण्डाधिकारी को न्यायिक विवेक दिये जाने के पक्षधर नहीं थे। उनके विचार से दण्ड निर्धारित करते समय न्यायाधीशों को दण्ड विधि की सीमाओं में रहना चाहिए तथा उससे हटकर दण्ड नहीं देना चाहिए। इस विचारधारा के अनुसार यातनात्मक दण्ड भी भर्त्सना किये जाने योग्य था।
(f) क्लासिकल विचारधारा की धारणा थी कि दण्ड की प्रभावकारिता इस बात पर निर्भर करती है कि अपराध से अपराधी को प्राप्त होने वाला संभावित फायदा, सुख की सन्तुष्टि, अपराध के लिए देय दण्ड से होने वाली यातना, कष्ट, असुविधा, क्लेश आदि की तुलना में कम होना चाहिए ताकि अपराधी सम्भावित दण्ड के भय से अपराधकृत्य करने की ओर प्रवृत्त न हो।
ज्ञातव्य है कि विख्यात इंग्लिश विधि सुधारक जर्मी बेंथम ने भी दण्ड की प्रभावोत्पादकता के विषय में इसी सिद्धान्त को सर्वाधिक महत्व दिया है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि क्लासिकल विचारधारा के अपराधशास्त्रियों ने सर्वप्रथम आपराधिक न्याय प्रशासन के लिए कुछ आदर्शात्मक सिद्धान्त सुझाए। निश्चित ही यह अपराधशास्त्र के क्रमबद्ध तथा तर्कसंगत अध्ययन का सराहनीय प्रयास था जिसने आगे चलकर इसे वैज्ञानिक आधार प्रदान किया और एक स्वतंत्र ज्ञान की शाखा के रूप में विकसित किया। तथापि इस दिशा में यह प्रथम प्रयास होने के कारण इसमें कुछ कमियाँ रह जाना स्वाभाविक ही था। क्लासिकल शाखा का सबसे गंभीर दोष यह था कि इसमें अपराधी की 'स्वतन्त्र इच्छा' और उसके अपराध कृत्य को अनावश्यक महत्व दिया गया था तथा उसकी मानसिक स्थिति पर कोई ध्यान नहीं गया था। इस विचारधारा का दूसरा प्रमुख दोष यह था कि इसके समर्थकों ने दण्ड की दृष्टि से प्रथमतः अपराध करने वाले व्यक्ति तथा घोर अपराधियों में कोई विभेद नहीं किया तथा समान अपराध करने वाले सभी अपराधियों को समान दण्ड दिये जाने का समर्थन किया। वस्तुतः यह उनकी महान भूल थी क्योंकि दण्ड निर्धारित करते समय अपराधी की मानसिक स्थिति तथा उसकी वैयक्तिक परिस्थितियों पर ध्यान दिया जाना अत्यन्त आवश्यक है। इन दोषों के होते हुए भी क्लासिकल विचारधारा का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि उसने एक ऐसी सरल और सुगम आपराधिक नीति की आवश्यकता प्रतिपादित की जिसका क्रियान्वयन निश्चित सिद्धान्तों के आधार पर किया जा सके और मनमाने दण्ड निर्धारण पर रोक लगाई जा सके। इसके समर्थकों ने धार्मिक मान्यताओं पर आधारित अपराध और आपराधिकता सम्बन्धी धारणाओं को निराधार साबित करते हुए अपराधी के व्यक्तित्व को महत्व दिये जाने पर बल दिया।
Comments
Post a Comment